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ही मानसिक शान्ति को भग कर देता हो उसका स्मरण न करना ही श्रेयस्कर होता है।
७ सातवीं बाड़-प्रणीत अर्थात् पौष्टिक भोजन न करे, क्योकि सरस पौष्टिक वासनोत्तेजक पदार्थो का पाहार करना भी ब्रह्मचारी के लिए हानिकारक होता है । जैसे सन्निपात के रोगी के लिए दूध और मिश्री का भोजन प्राणनाशक बन जाता है वैसे ही प्रणीत पाहार ब्रह्मचर्य का नाशक बन जाता है।
__पाठवीं बाड़-ब्रह्मचारी नीरस एव शुष्क भोजन भी ठूस-म कर न खाए, प्रमाणोपेत आहार-पानी का ही उपयोग करे। श्रीकृष्ण कहते हैं. . "युक्ताहार-विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नाववोधस्य योगो भवति दु खहा।" समुचित आहार, समुचित विहार, समुचित क्रिया, समुचित निद्रा होने पर ही साधक के लिये योग दुख विनाशक वन पाता है।
' अधिक खान-पान करने से पेट मे वह शुष्क भोजन फूल कर शारीरिक विकृतियो को उत्पन्न करता है । जैसे जीर्ण-शीर्ण थैली मे रखा हुआ रत्न निकल जाता है वैसे ही ब्रह्मचर्य-रत्न भी विकृत शरीर से निकल जाता है।
। नौवीं बाड़-साधक स्नान, मजन, अलकार, विभूषा आदि से शरीर विभूपित न करे । अलकृत शरीर वाला व्यक्ति विजातीयो के लिए प्रार्थनीय होता है, क्योकि विभूषा का प्रयोजन विपरीत लिंगी का आकर्षण ही होता है । यदि कोई पथिक चमकीले वस्त्र मे लपेट कर रत्न को अपने पास रखे तो चोर ठग आदि उसे ६०]
[ योग । एक चिन्तन