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जब कभी साधक के ज्ञान, दर्शन, सयम और तप दूपित हो जाते हैं तब उक्त दस कारणो से ही हुआ करते है, इन दोषो की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करना श्रावश्यक होता है । श्रालोचना करना भी एक प्रकार का प्रायश्चित्त है ही । जिस साधक मे दस गुण हो वही आलोचना करने का अधिकारी माना जाता है । वे दस गुण निम्नलिखित है, जैसे कि -
(क) जाति-संपन्न - उत्तम जातिवाला व्यक्ति प्रथम तो बुरा काम करता ही नही, यदि कभी उसके द्वारा भूल से हो भी जाए तो वह शुद्ध हृदय से आलोचना कर लेता है ।
(ख) कुल सपन्न - उत्तम कुल में पैदा हुआ व्यक्ति श्रद्धापूर्वक एव 'भविष्य मे ऐसा काय नही करूगा' इस भावना से प्रायवित्त करता है । जिस व्यक्ति का मातृपक्ष शुद्ध है वह जाति सपन्न कहलाता है और जिसका पितृपक्ष शुद्ध है वह कुल - सपन्न माना जाता है ।
(ग) विनय-सम्पन्न - विनीत व्यक्ति वडो की श्राज्ञा मानकर निष्कपट भाव से आलोचना कर लेता है ।
(घ) ज्ञान सम्पन्न - ज्ञानी जानता है कि ग्रालोचना करने पर ही मैं रत्नत्रय का आराधक वन सकूंगा, नही तो मुझे विराधक बनकर दुर्गतियो मे ही भटकना पडेगा, इस दृष्टि से ज्ञानी निष्कपट भाव से आलोचना कर लेता है ।
(ड) दर्शन सम्पन्न - जिस के हृदय मे यह दृढ श्रद्धा है कि निष्कपट हृदय से की हुई आलोचना श्रात्म-शुद्धि एव सयमशुद्धि का मूल कारण है, जीव के लिये परित्त ससारी, सुलभ बोधि और आराधक बनने का सबसे आसान तरीका आलोचना
योग एक चिन्तन ]
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