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(क) आचारवान्-लोक-कल्याण-कारी एवं आत्मोत्थान मे सहायक उस आचरण को प्राचार कहा जाता है, जो महापुरुपो द्वारा सेवित हो और गास्त्र-मर्यादा के अनुकूल हो । आचार का पालन समग्र रूप से होना चाहिये आशिक रूप से नहीं।
चार पाच प्रकार का होता है ज्ञानाचार-ज्ञान की पारावना, दर्शनाचार-सम्यग्दर्शन को आराधना, चारित्राचारचारित्र की आराधना, तपाचार-जप की आराधना, वीर्याचारसयम-रक्षा के लिए शक्ति या वल का प्रयोग । इन पाचो आचारो का पालन करने वाले महासाधक को आचारवान् कहा जाता है ।
(ख) आधारवान्-आलोचना करने वाले व्यक्ति द्वारा कहे गए अतिचारो को जो मन मे धारण करता है वही प्रत्येक दोष की निवृत्ति करवा सकता है, जो सुनी हुई पालोचना को भूल जाता है वह दूसरे की शुद्धि नही करवा सकता।
(ग) अपनीडक-द्रीडा का अर्थ है लज्जा । जो शिष्य लज्जा के कारण अच्छी तरह आलोचना नहीं करता, उसकी लज्जा या सकोच को मीठे वचनो द्वारा दूर करके अच्छी तरह आलोचना कराने वाला हो।
(घ) प्रकुर्वक -यालोचित अतिचारो का प्रायश्चित्त देकर दोपो की निवृत्ति कराने में समर्थ हो।
(s) व्यवहारवान्गास्त्रीय दृष्टि से व्यवहार पाच प्रकार का होता है-मागम-व्यवहार, सूत्र-व्यवहार, धारणा-व्यवहार, आज्ञा-व्यवहार और जीत-व्यवहार ।
प्रायश्चित्त कराने वाले महा पुरुष का इन पाचो व्यवहारो के विधि-विधान का ज्ञाता होना आवश्यक है। योग एक चिन्तन ]
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