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को न सुख है न निद्रा है, जो अर्थातुर है वह न बन्चु की परवाह करता है और न मित्र की, जो क्षुधातुर है उसका गरीर शिथिल और विवेक लुप्त हो जाता है और उसकी शक्ति क्षीण पड जाती है। अभिप्राय यह कि किसी भी तरह की प्राधि-व्याधि से व्यथित व्यक्ति आतुर कहलाता है ।
(ड) आपत्ति-प्रापत्ति चार प्रकार की होती है-द्रव्यापत्ति, क्षेत्रापत्ति, कालापत्ति और भावापत्ति ।
प्रासुक एपणीय एव जीवनोपयोगी पात्र, वस्त्र, एव प्रावास आदि का न मिलना द्रव्यापत्ति है । निर्धन व्यक्ति द्रव्य के अभाव में तरह-तरह के दोपो का सेवन करते हुए देखे जाते हैं। ___ जो भूमि-भाग परीपह एव उपसर्गों से घिरा हो, जगली जानवरो से तथा डाकू-चोरो से व्याप्त हो, ऐसे भयकर स्थानो मे गतिस्थिति दोनो ही क्षेत्रापत्ति हैं । देवाधिष्ठित स्थानविशेष भी इसी मे समाविष्ट है।
मन का अस्थिर एव आकुल रहना, कि कर्तव्य-विमूढता की स्थिति उत्पन्न हो जाना एव आर्तध्यान तथा रौद्र-ध्यान करते हुए आकुल होना भावापत्ति है।
इन आपत्तियो के उपस्थित होने पर साधक अपनी साधना से फिसल जाता है, नियम-उपनियमो की विराधना करने लग जाता है।
(च) संकीर्ण-प्रतिसेवना-जिस क्षेत्र मे चार पाच साधुओ का भली-भान्ति निर्वाह हो सकता हो, उसमे वीस-तीस साधुओ का आगमन हो जाए तो सकीर्ण दोष उत्पन्न हो जाता है । वहां आहारपानी के वियालीस दोष टालने अति कठिन हो जाते है । प्राधाकर्म एव औद्देशिक आदि अनेक दोषो के होने की सम्भावना हो जाती योग एक चिन्तन
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