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प्रसन्नता ही समाधि का फलितार्थ है। तपस्या तथा धर्म-चिन्तन करते हुए कर्मों का विशिष्ट क्षयोपशम या क्षय हो जाने से जो चित्त मे विशुद्ध आनन्द की अनुभूति होती है वही समाधि है। चित्त-समाधि के कारणो को स्थान कहते हैं, वे कारण या स्थान इस प्रकार हैंचित्तसमाधि-स्थान
१. धर्मलाभ-जिसके मन मे पहले धर्म की भावना नहीं उसके चित्त मे पहली वार धर्म-भावना पा जाने पर चित्त मे हर्षोल्लास भर जाता है।
२ शुभ स्वप्न - जिस सर्वोत्तम स्वप्न की कभी मनुष्य ने कल्पना भी नही की-उस उत्तम महास्वप्न के देखने पर उसके मन मे विशेप प्रानन्द की अनुभूति होने लगती है।
३ जाति-स्मरण-अपने पूर्व भवों को देख लेना जातिस्मरण जान-कहलाता है। अनकूल निमित्त मिलने पर जव यह ज्ञान उत्पन्न होता है तब चित्त मे अानन्द की अनुभूति होती है।
४. देव दर्शन जिसने पहले कभी देव-दर्शन नहीं किया, यदि उस व्यक्ति को अपने पूर्ण वैभव के साथ पहली वार दसो दिशामो को प्रकाशित करते हुए किसी देव के दर्शन हो जाएं तो वह भी चित्तसमाधि का एक कारण बन जाता है।
५ अवधि-ज्ञान-पहली बार अवधिज्ञान के द्वारा लोक के स्वरूप को जान लेने पर चित्त मे अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है।
६. अवधि-दर्शन-पहली बार उत्पन्न हुए अवधिदर्शन से योग एक चिन्तन ]
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