________________
दृढता से प्रवृत्ति नही कर सकता, व्रत तत्त्वविषयक पक्ष और विपक्ष दोनो कावास्तविक ज्ञान होना हो सम्यग्ज्ञान है ।
श्रात्मा का निश्चय होना सम्यग्द है और ग्रात्म-ज्ञान होना हो सम्यग्ज्ञान है। मिश्री मे जैसे उज्ज्वलना और माधुर्य एक साथ रहते हैं, वैसे ही ग्रात्मा में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनो एक साथ रहते हैं । जब जीव में सम्यग्दर्शन का उद्भव होता है, तब उसकी चेतना ज्ञान रूप में परिणत हो जाती है । जीव का वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञानी हे और हेय के कारणो को विष समझकर सर्वदा के लिए छोड़ देता है और उपादेय के कारणों को अमृत समझकर सदा-सदा के लिए ग्रहण कर लेता है |
}
ग्रज्ञान का स्वरूप इससे विपरीत है । प्रज्ञान ससार का कारण है और ज्ञान मोक्ष का, प्रज्ञान का सहचारी मिथ्यात्व है और ज्ञान का सम्यग्दर्शन | सम्यग्दर्शन उत्पन्न होते ही जीव का दृष्टिकोण बदल जाता है, आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का उदय हो जाता है । सम्यग्दर्शन सम्बन्धी विरोधी कारणों के उपस्थित होने पर भी स्थिर रहने वाला साधक स्थितप्रज्ञ कहलाता है । सम्यग्दर्शन के विरोधी कारणों को जानना और उनसे सावधान रहना सम्यग्दृष्टि के लिये अत्यावश्यक है । वे विरोधी कारण ही सम्यग्दर्शन के दूषण अथवा उसके प्रतिचार कहलाते हैं, जो सख्या मे पाच है
}
:
१. शंका-शका का अर्थ सदेह और भय है । जिन भाषित तत्त्वो के प्रति सदेह का होना शंका है और जिसका मन सात प्रकार के भयो से व्यथित है वह शकालु है । पहले भय के कारण
४६ ]
[ योग : एक चिन्तन