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शका उत्पन्न होती है और शक्ति पदार्थ का प्रत्यक्ष होने पर मन भय से व्याकुल हो जाता है ।
२ कांक्षा धर्माचरण के द्वारा सुख-समृद्धि पाने की इच्छा काक्षा है और एकान्तवादियों के दर्शन द्वारा स्वीकृत इच्छा भी काक्षा है ।
३ विचिकित्सा - इसके दो रूप हैं-धर्म के फल मे सदेह और चारित्रवान् से घृणा करना | निन्दनीय व्यवहार करना या कुदृष्टियों से घृणा करना या मलमूत्र आदि अपावन पदार्थों से घृणा करना भी विचिकित्सा है ।
४. पर-पाषण्ड - प्रशंसा – मिथ्यादृष्टियो की प्रशंसां और स्तुति
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करना ।
५ पर-पाषण्ड- परिचय - मिथ्यादृष्टियों के अधिक परिचय मे रहना या उनकी सेवा करना ।
इन पाँच प्रतिचारो से सम्यग्दर्शन दूपित हो जाता है । दूपित सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व के प्रभिमुख हो जाता है । मिथ्यात्व सब विपत्तियो का मूल कारण है ।
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सम्यग्दर्शन के ग्राठ भूपण हैं, जिन से संम्यग्दर्शन विशुद्ध, विशुद्धतर और विशुद्धतम होजाता है । इन्हे ही दूसरे शब्दो में दर्शनाचार भी कहते हैं, जैसे कि -
१. नि शक्ति - सम्यग्दृष्टि को सदैव असंदिग्व और प्रभय ही रहना चाहिए ।
२. नि कांक्षित - जिन-धर्म मे श्रटल विश्वास रखते
योग एक चिन्तन ]
-हुए
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