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५ प्रास्तिक्य-जीवादि नव पदार्थों को, द्रव्यो को, स्वर्ग, नरक आदि की सत्ता को स्वीकार करना ही आस्तिक्य है।
इन पाचो गुणो से सम्पन्न महासाधक सम्यग्दृष्टि बन जाता है, उसके हृदय से राग द्वष की तीव्रता मिट जाती है, उसकी आत्मा सत्य के लिए जागरूक बन जातो है, यह आध्यात्मिक जागरण ही सम्यग्दर्शन है।
अनादि कालीन ससार-प्रवाह मे भिन्न-भिन्न प्रकार के दु खो का अनुभव करते-करते जब सब कर्मों की स्थिति अन्त -कोटाकोटी सागरोपम की किसी योग्य प्रात्मा में यथा-प्रवृत्ति-करण के द्वारा शेप रह जाती है, तब पहले से भी अधिक परिणामो की शुद्धि हो जाती है जो कि उसके लिये अपूर्व होती है। अपूर्वकरण से राग-द्वेष की वह तीनता मिट जाती है जो तत्त्व-ज्ञान और सत्य-निष्ठा मे बाधक है, अपूर्वकरण से जव कर्म-ग्रन्थि या मिथ्यात्वग्रन्थि नष्ट हो जाती है, तब इस अवस्था की वृत्ति को अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसी वृत्ति के उदित होने पर सम्यग्दृष्टि जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन के अभिमुख होता है।
यहा तत्त्व शब्द का अभिप्राय-अनादि, अनत स्वतन्त्र सत्तात्मक तत्त्व नही, बल्कि मोक्ष-प्राप्ति मे उपयोगी ज्ञेय भाव है। मोक्षार्थियो एव जिज्ञासुमो के लिए जिन वस्तुओं का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है वे ही पदार्थ यहा तत्त्व-रूप से कहे गए है । मोक्ष मुख्य साध्य है, अत मोक्ष और उसके साधनो को जाने बिना मोक्ष-मार्ग मे प्रवृत्ति नहीं हो सकती। ____मोक्ष के विरोधी तत्त्वो का और उन विरोधी तत्त्वो के कारणो के स्वरूप का ज्ञान हुए बिना भी मुमुक्षु अपने पथ में योग : एक चिन्तन ]
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