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भी सम्यग्दर्शन है उसी से वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। सम्यग्दृष्टि वनते हो अनेक प्राध्यात्मिक गुणो को प्राप्त कर साधक सफलता के मार्ग पर अग्रसर होने लगता है। . . अभय और निर्भय
जो साधक स्वय भय से मुक्त है और दूसरो को भी भय से मुक्त करने की क्षमता रखता है वह अभय है और जो साधक भयानक वातावरण और भय के अनेक कारण उपस्थित होने पर भी भयभीत नही होता वह निर्भय है। सम्यग्दृष्टि मे किसी भी प्रकार का भय होता ही नहीं, वह किसी से डरना जानता ही नही। अधिकाश मानसिक व्याधिया भय से उत्पन्न होकर फिर वे स्वय भय-उत्पादक हो जाती है, जैसे किसी मा को लडकी कालान्तर मे स्वय मा बन जाती है। भय उत्पन्न होने के तेरह कारण है जैसे कि१ अज्ञान जो व्यक्ति जिस काम से अनभिज्ञ होता है उसे वह
काम करते समय भय लगता है तथा जिस स्थान के
सम्बन्ध मे जानकारी नही होती है वहा जाते हुए - मनुष्य भयभीत होता है। २ संशय-मानव जव काशील होता है तब उसकी सगया
त्मिका वृत्ति भय-उत्पादिका बन जाती है। ३ उदासीनता-मध्यस्थ भाव को उदासीनता कहते हैं, किन्तु
यहा यह अर्थ अभीष्ट नही है। यहां इसका अर्थ है उत्साह-हीन अवस्था। उत्साहहीन व्यक्ति सर्वदा त्रस्त
रहता है। ४. अनिश्चितता-मानसिक अस्थिरता से भय उत्पन्न होता है। योग . एक चिन्तन
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