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५ अनैतिकता-चारित्र की निर्वलता से भय पैदा होता है। ६. अशक्तता-शारीरिक एव मानसिक दुर्वलता और असमर्थता
भय की मां है। ७. अयोग्यता-जो व्यक्ति जिस कार्य के योग्य नहीं है उसे वह
कार्य करते हुए भय की अनुभूति अनायास ही होने लग
जाती है। ८. अकर्मण्यता-जहा आलस्य है वहा भय मुह खोल कर - आता है। ६. दीनता-पारिवारिक दृष्टि से, स्वभाव की दृष्टि से, उत्साह
की अपेक्षा से, धन की अपेक्षा से जव मानव को अपने दीन-हीन होने का आभास हो जाता है, तब वह भय के
मुह मे जा गिरता है। १०. पर-वशता-जो मानव अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व को खो देता
है वह पराधीन हो जाता है और पराधीन व्यक्ति सर्वदा
भयभीत रहता है। ११ असहनशीलता-जिस मे सहनशीलता नही होती उसे भी
भय डराता ही रहता है। १२ व्यसन- व्यसनी व्यक्ति सदैव भयभीत ही रहता है। १३ अविश्वास-जिस को किसी पर विश्वास है ही नही,वह सदैव
भयभीत रहता है। सम्यग्दृष्टि साधक मे भय के इन कारणो का अभाव रहता है। वह किसी से डरना जानता ही नहीं, क्योकि जब कारण का ही प्रभाव है तो कार्य का अभाव होना स्वत -सिद्ध है। '
[योग • एक चिन्तन
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