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के त्यागने योग्य चार दोप बतलाए गए है। जैसे कि दग्ध, शून्य, अविधि और अतिप्रवृत्ति ।
दग्ध-एक क्रिया को समाप्त किए बिना दूसरी क्रिया प्रारम्भ करने से पहली क्रिया भस्म हो जाती है।
शून्य-जिस साधना मे उपयोग नही है, मन की स्थिरता एव सलग्नता नही है, वह द्रव्य साधना है भाव-साधना नहीं।
प्रविधि-प्रत्येक क्रिया विधि-पूर्वक ही करनी चाहिए प्रविधि से की गई कोई भी क्रिया सफल नही होती।
अतिप्रवृत्ति-अपनी शक्ति से भी अधिक साधना करना अतिप्रवृत्ति है। सम्यग्दर्शन के भेद
सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का होता है-औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक । सम्यग्दर्शन के प्रावरणभूत दर्शन-मोहनीय कर्म के उपशम,क्षयोपशम, और क्षय से इसका उद्भव होता है। । इन भावो से सम्यग्दर्शन की शुद्धि का तारतम्य जाना जा सकता
है । औपशमिक को अपेक्षा क्षायोपशमिक और क्षायोपमिक की अपेक्षा क्षायिक भाव वाला सम्यग्दर्शन उत्तरोत्तर विशुद्ध एव विशुद्धतर होता है । चौथे से लेकर ग्यारहवे गुणस्थान तक प्रोपशमिक, चौथे से लेकर सातवे गुण स्थान तक क्षायोपशमिक और भवस्थ की अपेक्षा चौथे से लेकर चौदहवे गुण स्थान तक क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। सिद्धो की अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दर्शन-सादि अनन्त है । औपशमिक सम्यग्दर्शन को स्थिति अन्तर्महर्त प्रमाण मानी गई है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की स्थिति कम से कम अन्तमहर्त और उत्कृष्ट छयासठ सागरोपम से कुछ अधिक तथा क्षायिक सम्पदर्शन की स्थिति सादि अनन्त है। जिस जीव मे जो
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[योग • एक चिन्तन