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है। भक्ति भाव वाले व्यक्तियो द्वारा छ, काय की विराधना भी होनी स्वाभाविक है।
(छ) सहसाकार-विना सोचे समझे अकस्मात् किसी जीव पर पांव आ जाने से विराधना हो जानी, असत्य बोला जाना और सघट्टा लग जाना सहसाकार-प्रतिसेवना है।
(ज) भय- भयाक्रान्त साधक असत्य भी बोल सकता है, कायोत्सर्ग भी तोड सकता है, जीव-पाकीर्ण मार्ग पर भी विना देखे विना प्रमार्जन किये जा सकता है, वृक्ष पर भी चढ सकता है, और दुराचार का सेवन भी कर सकता है । इस तरह की क्रिया भयप्रतिसेवना है।'
(झ) प्रद्वेष-दुपवश साधक असत्यभापी हो जाता है, ईर्ष्यालु हो जाता है, किसी को अपमानित एव तिरस्कृत भी कर सकता है। इस दोप से ग्रस्त साधक जिस ओर भी देखता है उसे अवगुणो के अतिरिक्त यौर कुछ दीखता ही नही । गुणो पर उसकी दृष्टि जाती ही नहीं । प्रद्वप जड़ और चेतन किसी पर भी हो सकता है।
यहां प्रदूप से चारो कपाय लिये जाते है। इस दोप के कारण भागातना, अविनय और सयम-विराधना का होना निश्चित
(अ) विमर्श-जब साधक परीक्षण के निमित्त कोई कार्य करता है तव यह दोप लगता है। जैसे हाथ वाहर करके जानना कि वूदे पड रही हैं या कि नही ? रायते मे पड़ा हुआ मिर्च का वीज अचित्त हो जाता है या नहीं, यह जानने के लिये उसे उगाने की चेष्टा करना, जल सचित्त है या अचित्त परीक्षण करना, किसी की परीक्षा के लिये सयम की विराधना करना आदि विमर्शप्रतिसेवना के ही अनेक रूप हैं।
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[ योग एक चिन्तन