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४. अनिश्रितोपधान
'अनिश्रित' और 'उपधान' इन दो शब्दो के योग से 'प्रनिश्रितोपत्रान' शब्द की निष्पत्ति होती है । उपधान जैनागमो का पारिभाषिक शब्द है । इस का अर्थ है शरीर को कष्ट देनेवाले तथा कपायो एव भ्रष्ट विध कर्मों को भस्म करने वाले वे धार्मिक व्रत नियम ग्रनुष्ठान प्रादि जो चित्त को भोग विलास से हटाने के लिये किये जाए । इन्द्रियो को वश में रखना, शरीर की प्रत्येक किया मे विवेक रखना और शास्त्रोक्त विधि से तपश्चर्या करना उपधान है ।
उपधान दो प्रकार का होता है - निश्रितोपधान श्रौर अनिश्रितोपधान | प्रासक्तिपूर्वक तपञ्चर्या करना निश्रितोपधान है और अनासक्ति से प्रेरित होकर तपश्चर्या करना अनिश्रितोपधान है । वैदिक संस्कृति प्राय तप के पहले रूप को स्वीकारती है श्री श्रमण संस्कृति की तप के दूसरे रूप पर विशेष निष्ठा है । जो तप किसी भौतिक सुख की कामना रख कर किया जाता है ऐसे तप के प्राचरण के लिये भगवान महावीर ने किसी को भी प्रेरणा नही दी । उन्होने स्पष्ट शब्दो मे साधको को उद्बोधन देते हुए कहा है
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नो इह लोगट्टयाए तवम हिट्टिज्जा,
नो पर लोगट्टयाए तव महिद्विज्जा,
[ योग एक चिन्तन