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८. अलोभ
- यहा लोभ शब्द के विपरीतार्थक शब्द 'सन्तोप' का प्रयोग न करके निपेध सूचक 'अलोभ' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिससे सभी तरह से लोभ के परित्याग की भावना ध्वनित की गई है।
इन्द्रियो के द्वारा जड या चेतन का प्रत्यक्ष होते ही मन में उसे प्राप्त करने को जो पाकुलता जागत हो जाती है वही लोभ हैं। जव लोभ मन मे पैदा होता है, तब मन उचित-अनुचित का विवेक खो देती है। लोम के वशीभूत होकर मानव हिंसा भी करता है, झूठ और चोरी मे भी प्रवृत्त होता है, दूसरे की वस्तु को हथियाने की कोशिश भी करता है ।
लाभ से लोभ वढता है, कपट उसका साथी है, लोभ और कपट का सयोग सभी पापो को जन्म देता है। लोभ से सभी तरह के मधुर सम्बन्ध खटाई में पड़ जाते हैं। मन को शान्ति भग हो जाती है।
जब साधक त्यागवत्ति में पहच जाता है तब उसके लिये भगवान निर्देश करते है कि अब अपने जीवन मे लोभ का उद्भव न होने दो, जब चित्त पर लोभ की छाया भी न रह जाय वही अलोभ की दशा है। जव साधक प्रात्मस्वरूप में रमण करता है, सन्तुष्ट रहता है, तब उसमे लोभ की सूक्ष्म वृत्ति भी नही रह योग . एक चिन्तन
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