________________
यह गुण जीवन में उतर श्राता है तभी ग्रालोचना के द्वारा सभी दोष या पाप निकल कर बाहर हो जाते हैं। प्रायश्चित्त के द्वारा सभी छिद्र वन्द हो जाते हैं, ग्राश्रवो का निरोध हो जाता है, सवर एवं सयम अपूर्ण से पूर्ण की ओर बढते हैं । ग्रर्जव गुण जैनत्व से प्रोतप्रोत है । श्रार्जवगुण से साधक श्राराधक बनता है
र मायाचारिता से विराधक । श्रपनी साधना मे उत्तीर्ण होना ही श्राराधकता है, उसमे श्रनुत्तीर्ण होना ही विराधकता है। श्रार्जव गुण से युक्त जीव ही मोक्ष- पथ का पथिक बन सकता है । इस गुण की निर्मलता के साथ-साथ सभी गुण स्वयं निर्मल हो जाते हैं, मोह की सभी प्रकृतिया मन्द मन्दतर एव मन्दतम पड जाती हैं, उनका वल क्षीण हो जाता है और ग्रात्मा का बल वढ जाता है । अपना बल बढ जाने से कर्मो की पराजय निश्चित ही है । यदि हम गभीरता से विचार करें तो ऐसा कहना अनुचित न होगा कि शान्ति, नम्रता आदि गुणों मे भी ग्रार्जव गुण ग्रधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योकि इसकी देखरेख मे रहते हुए साधक के हृदय मे कोई भी दोप प्रवेश नही कर सकता ।
1
आर्जव का अर्थ सीधा पन या भोला पन भी हो सकता है । बचपन तक मानव मे भोला पन रहता है, ग्रायु- वृद्धि के साथ-साथ भोलेपन का ह्रास होता जाता है। जो साधक अपने इस गुण का ह्रास नही होने देता वह सदैव सुखी रहता है | भोले - पन मे निष्कपटता का उदय स्वाभाविक है, श्रुत श्रार्जव गुण से युक्त साधक अपने भोलेपन के कारण बच्चे की तरह तीव्र रागद्व ेष से मुक्त रहता है, प्रत वह सरलता से मोक्ष पथ पर बढने मे सफल हो जाता है ।
४० ]
[ योग : एक चिन्तन