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प्रश्न हो सकता है यदि शरीर दुर्गन्ध पूर्ण एवं अपवित्र ही है तो आचार-विचार की पवित्रता इस मे कैसे हो सकती है ? इसके उत्तर मे यही कहा जा सकता है कि जैसे दुर्गन्ध - पूर्ण कीचड मे उत्पन्न कमल सुन्दर एव सुरभि से परिपूर्ण होता है वैसे ही इस अपवित्र प्रदारिक शरीर मे आचार-विचार भी पवित्र हो सकते हैं और उनके योग से शरीर की महत्ता भी बढ जाती है । विचारो की पवित्रता से मन, हितकर एव प्रिय सत्य से वाणी और आचार की पवित्रता से शरीर पंवित्र हो जाता है ।
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शुचि के दो रूप हैं - आचार की पवित्रता और विचारो की पवित्रता साधक को कभी भी अपने आचार-विचार को अपवित्र नही होने देना चाहिये । यदि कारण वशं विषयो एव कषायों के योग से कलुषित हो जाए तो उन्हें तुरन्त पवित्र करने का प्रयास किया जाना चाहिये । शुद्ध विचारो से प्रचार पवित्र होता है और शुद्ध ग्राचार से विचार पवित्र होते है । ग्राचार और विचार की पवित्रता ही ग्रात्मा की पवित्रता है । श्राचार-विचार की पावनता बनाए रखने में ही मानव-जीवन की सफलता है ।
- महाभारत के युद्ध मे विजय प्राप्त होने के बाद पाण्डवो ने सबसे पहले बड़े समारोह पूर्वक एक राजसूय यज्ञ - सपन्न किया, उसके बाद वे नरसहार के महा पाप मल से मुक्त होने के लिये - तीर्थ स्नान को चल पड़े। कोई भी तीर्थ ऐसा नही रह गया जहा पर उन्होने स्नान न किया हो । वे ग्रठसठ तीर्थो मे स्नान करके वापसी पर द्वारका नगरी मे श्री कृष्ण जी के पास पहुचे । उनका मन पाप भार से अव भी श्राकुल था। मानसिक शुद्धि एव शाति का कोई भी लक्षण वे अपने जीवन मे नही देख पा रहे थे । अन्त
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[ योग एक चिन्तन
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