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७. अज्ञातता
इस का अर्थ है छिपाव, अर्थात् अपने प्रत्येक शुभ अनुष्ठान को -पाठ, जप, ध्यान एव तप आदि को इस प्रकार करना चाहिये जिससे उसे सांसारिक लोग न जान पाए, तप आत्म-शुद्धि के लिये हो, प्रदर्शन के लिये नही । साधक को अपना तप किसी के सामने प्रकाशित नही करना चाहिये, यश और पूजा की कामना किये विना इस प्रकार तप करना चाहिए कि किसी को पता ही न लगे । अज्ञात तप मन को शान्त बनाता है तथा अधिक से अधिक कर्मों की निर्जरा और शुभानुवन्धी शुभ फल देनेवाला होता है ।
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इस तप की आराधना वही कर सकता है जिसको मानप्रतिष्ठा की भूख न हो, प्रसिद्धि की कामना न हो, सासारिक सुख-समृद्धि की आशा न हो, इहलोक और परलोक की इच्छा से जो निस्पृह हो, दृष्ट एवं प्रदृष्ट वैषयिक सुखो की तृष्णा से रहित हो, जिसमे तप करने की सहज भावना हो, जो तप करने की विधि का ज्ञाता हो, तप की साधना मे श्रद्धा रखनेवाला हो, भगवान की वाणी पर दृढ निष्ठा रखता हो, आत्मा पर और कर्म सिद्धात पर जिसका दृढ़ विश्वास हो, जो चारित्रवान हो, इतना ही नही जितेन्द्रिय भी हो तथा मन्द- कपायी हो, विनीतता एव श्रार्जव आदि गुणो से युक्त हो, आगमो का पारगामी हो, वही इस अज्ञात तप का आराधक बन सकता है ।
योग एक चिन्तन ]
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