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जाती है । एक लोभ के छोड़ने से उसके सहयोगी सभी दुष्कृत स्वत छूट जाते हैं ।
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प्रलोभ आत्मा का उत्थान करनेवाला है और लोभ श्राव्यात्मिकता के शिखरो से पतन कराने वाला है। हजारो गुणो मे प्रमुख गुण है प्रलोभ, जब कि हजारो अवगुणों मे मुख्य अवगुण है लोभ । अलोभ आत्मा का निज धर्म है और लोभ परधर्म | लोभ से आत्मा ससार की ओर आकृष्ट होता है और लोभ परमात्मा की परिधि मे पहुचाने वाला है । प्रलोभ सयम है और लोभ वासना है । प्रलोभ आत्मा का स्वाभाविक गुण है और लोभ वैभाविक एव श्रपचारिक गुण है । श्रलोभ अखण्ड शान्ति एव श्रानन्द का असीम हृद है और लोभ दुख- परम्परा को महाज्वाला है। लोभ का उन्मूलन उसके त्याग से होता है । लोभ के निवृत्त हो जाने पर अलोभ स्वत. उत्पन्न हो जाता है । लोभ असत्य का अनुरागी है और अलोभ सत्य का सहचर है । अत अलोभ उच्चसाधक का 'भूषण है । सभी सांसारिक प्रवृत्तियो का तन्तु लोभ से जुडा रहता है । चाह, इच्छा, अभिलापा, कामना, वासना ये सब लोभ के ही अनेक रूप है । एक विचारक के शब्दो मे
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चाह मिटी चिन्ता गई, मनुग्रा बेपरवाह । . जिसको कछु न चाहिये सोई शहनशाह ॥ प्रलोभ साधक को शहनशाह - इच्छा-मुक्त महान् सन्त बना
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देता है ।
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[ योग : एक चिन्तन