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कोई भी धनाढ्य व्यक्ति जैसे किसी के सामने अपनी सपत्ति या आमदनी को वास्तविक रूप में नहीं बताता, उसे गुप्त रखता है, वैसे ही तप भी साधु का महान् धन है, उसे गुप्त रखने मे ही उसका कल्याण है । सेठों के खुले वन को देखकर जैसे उनके आस-पास अर्थाथियो की टोली मडराने लग जाती है वैसे ही प्रसिद्धि प्राप्त तपस्वी को स्वार्थ-परायण, गृहस्थ समय-समय घेरे रहते हैं, जिससे उसकी साधना मे शैथिल्य आना स्वाभाविक हो जाता है, क्योकि अधिक जन-ससर्ग साधना-मार्ग का बाधक होता है। -
तपस्वी को चाहिये कि वह "गिहसं यवं न कुज्जा, कुज्जी साहहि संय"--गृहस्थो के साथ परिचय न करे साधुप्रो के साय ही परिचय करे, क्योकि "संसर्गजा दोष-गुणा भवन्ति" जो जैसो ससर्ग करेगा वह वैसा होकर ही रहेगा। अत. साधक को अज्ञाततप ही करना चाहिए, उसे जलसे और जलूसो के चक्कर में नहीं पडना चाहिए।
_हम देखते हैं कि आज के तपस्वी को वृत्ति विपिनमयी हो गई है, वह तप करता है शोहरत के लिये, चेले-चेलियां बढाने के लिये एवं मान-प्रतिष्ठा की वृद्धि के लिये 1 ऐसे तप की तप नहीं कहा जा सकता, उसे यदि केवल कायक्लेश कहे तो ठीक रहेगा तप के लिये काया को क्लेश देना बुरा नही, प्रदर्शन के लिये कायों को क्लेश देना हिसा है। प्रदर्शन के लिये काया को क्लेश तो सरकस वाले भी देते हैं, उसे न तो तप कहा जा सकता है और न ही उससे देवलोको की अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, अंत एकान्त स्थान मे आत्मोत्थान के लिये ही अज्ञाततप करना चाहिये। ३४]
[ योग : एक चिन्तन