________________
किया जाए, वह अपने अनुचि स्वभाव का परित्याग नहीं करता, क्योकि इसमे नित्य मल-मूत्र आदि उत्पन्न होते रहते हैं। यदि शान्त एव स्थिर होकर सोचा जाय तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि शरीर का कोई भी अवयव घृणा-जनक पदार्थों से गून्य नहीं है।
यह शरीर प्राधि-व्याधि आदि प्रनेक रोगो का घर है। इसे कोई गगाजल या समुद्र के जल से भा शुद्ध करना चाहे तो भी यह शुद्ध नही हो सकता। इसी उदेश्य को लेकर ज्ञानी जन शीत जल से या गर्म जल से स्नान नही करते, क्योकि स्नान वनाव का मुख्य अग है, बनाव काम-वासना को अभिवृद्धि करता है। इतना ही नहीं, वे न केगालकार करते है, न वस्त्राल कार, न आभरणालकार और न माल्यालकार करते हैं, ये सब विभूपा के साधन हैं और इनका उद्देश्य विपरीत लिंगी का आकर्षणं ही होता है। ।
आत्महित का इच्छुक साधक विभूपा, काम-वासना को उत्तेजित करने वाला सग और पौष्टिक पदार्थो का आहार इन सबको तालपुट विप के समान समझता है । अत वह शरीर के किसी भी बनाव-श्रृंगार की ओर कभी भी ध्यान नहीं देता। वह जगत् के स्वभाव को और शरीर के स्वभाव को भली भान्ति जानता है। उसके लिए जगत और शरीर दोनो तरह का स्वभाव ससार मे फमाने के लिए नहीं, अपितु सवेग और वैराग्य की जागृति के लिये है। कहा भी है 'जगत्काय स्वभावी सवेग-वैराग्यार्थ म्" ।,
(तत्वार्थ मूत्र अ० ७वा)
___३२]
[ योग : एक चिन्तन