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सकोचन-प्रसारण मे, वस्त्र-पात्र प्रादि उपकरणो के प्रतिलेखनप्रमार्जन मे, वस्तु के उठाने-रखने मे, मल-मूत्र आदि के त्याग मे यतन करना तथा वाणी बोलने मे सयम से काम लेना इस प्रकार की सुप्रवृत्ति चारित्र का वाह्य अग है। दुष्प्रवृनियो से निवृति और सत्कायो मे प्रवृत्ति ही चारित्र है। चारित्र जीवन की सर्वोच्च कला है । कला का अभ्यास विना सीखे नहीं हो सकता, जब तक चारित्र की उपयोगिता पूर्ण न हो जाए, तब तक क्षण-क्षण मे प्रासेवन-शिक्षा का अभ्यास करते ही रहना चाहिये। ग्रहण-शिक्षा से ही प्रासेवन-शिक्षा पल्लवित, पुष्पित एव फलित होती है। ग्रहण शिक्षा के विना प्रासेवन-शिक्षा अकिचित्कर है, अत कहा भी है 'पढम नाण तयो दया" पहले ज्ञान होगा तभो जीवो पर दया की जा सकती है। छ काय का ज्ञान होने पर ही अहिंसा महाव्रत पल सकता है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये सब अहिंसा के पोषक एव परिवर्धक तत्त्व हे । अत पहले ग्रहण-शिक्षा का अभ्यास करना चाहिए, फिर प्रासेवन-शिक्षा का। शिक्षा योग-साधना की पाचवी सीढी है।
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[ योग एक चिन्तन