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जैसे क्रिया के विपरीत होने से कार्य भी विपरीत ही हो जाता है, वैसे ही क्रिया सम्यक होने से कार्य भी सम्यक् होता है। मुशिष्य नित्यप्रति आलोचना वोलकर या लिखकर करता है । जैसे शरीर मे पित्त बढ जाने से जब तक उल्टी के द्वारा वह पित्त बाहर नही निकल जाता, तब तक शरीर मे घवराहट रहती है, उसके निकल जाने पर वेचनी भी दूर हो जाती है, वैसे ही ग्रालोचना करने से सभी दोष विलुप्त हो जाते हैं, मन सत्र तरह से समाहित हो जाता है, अत सदोप साधक के लिए आलोचना करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा परलोक सुखकर नही होता है। योगी बनने के लिये यही प्रथम सीढी है, इस पर साधक को सावधान होकर चढने का प्रयास करना चाहिये ।
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[ योग एक चिन्तन