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१. श्रालोचना
१ पालोचना- उपर्युक्त बत्तीस योगों मे सब से पहला योग है-आलोयणा-आलोचना। आलोचना गब्द का शाब्दिक अर्थ है चारो ओर अच्छी प्रकार देखना, अर्थात् किसी वस्तु के गुण-दोषो पर विचार करना या उनका निरूपण करना। इसका अर्थ बतलाना' भी है, अतएव प्रायश्चित्त के लिए अपने द्वारा किए हुए दोषो को निष्कपट भाव से गुरु के समक्ष बतलाना आलोचना कहलाती है। माया से सभी दोप छिपाये जाते हैं और निष्कपटता से उन्हे प्रकट किया जाता है। जब कोई भी वस्तु किसी दोष से दूषित हो जाती है, तब उसका मूल्य गिर जाता है, वैसे ही जब किसी साधक की साधना दोपो से दूषित हो जाती है तब उसकी साधना का स्तर भी गिर जाता है।
दोष को शास्त्रीय भाषा मे प्रतिसेवना भी कहते है। दोष कृत भी होते है और अकृत भी । हीरे, जवाहरात, मणि-मोती आदि पदार्थो मे जो दोष पाया जाता है वह अकृत दोष है । साधको मे कुछ जन्मजात दोप होते हैं और कुछ कृत दोष भी होते हैं, किन्तु . प्रतिसेवना त की ही होती है अकृत की नहीं, क्योकि प्रतिसेवना का अर्थ है-निषिद्ध वस्तु का सेवन या प्राज्ञा-विरुद्ध कार्य करना । कोई भी साधक अपनी साधना को दूषित करने के लिए तैयार नहीं होता, प्रत्येक दृष्टि से वह अपनी साधना को शुद्ध रखने के योग , एक चिन्तन ]