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विकार और विचार स्वत ही लुप्त होने लगते है । मन और इन्द्रियां स्वयमेव श्रात्मा के वशीभूत हो जाती हैं । ज्ञान का प्रखण्ड प्रकाश पुज सदा के लिए जगमगा उठता है, श्रात्मा सव तरह से कृतकृत्य होकर परमात्म-पद को प्राप्त कर लेता है, फिर उस के लिये कुछ प्राप्त करना शेष नही रह जाता। वह अपूर्ण से पूर्ण वन जाता है, उसकी चेतना और ग्रानन्द ये दोनो ससीम से असीम वन जाते हैं । इतना ही नही आत्मा के सभी गुण असीम हो उठते है ।
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वन्दना
[ योग : एक चिन्तन