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योग-प्रवेश
4666666 जैन दर्शन वह नन्दन-वन है जिसमे विहरण और विचरण करने से मानव की सभो भ्रान्तिया दूर हो कर जान-पिपासा शान्त हो जाती है। जैसे सूर्य के उदित होने पर अन्धकार स्वत ही नष्ट हो जाता है, वैसे ही इस नन्दन-वन मे पहुचकर सभी शकाए अनायास ही निर्मूल हो जाती हैं।
__ आत्मा मे अनन्त ज्ञान है, उसे जानावरणीय कर्म-प्रकृतियो ने ढाक रखा है। ज्ञानावरणीय कर्म का जितने-जितने अंश मे क्षयोपशम होता जाता है, उतना-उतना ज्ञान विकसित होता जाता है । जो ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है एव निश्चयात्मक है, वही ज्ञान प्रामाणिक माना जाता है। जैसे दीपक या सूर्य को देखने के लिये किसी अन्य दीपक या सूर्य की प्रावश्यकता नहीं रहती, दीपक और सूर्य स्वय प्रकाशमान तो है ही, साथ ही वे दूसरे पदार्थों को भी प्रकाशित करते हैं। वैसे ही ज्ञानी प्रात्मतत्त्व को तो जान ही लेता है साथ ही वह अन्य लोगो को भी ज्ञानालोक से आलोकित कर देता है। ___मानव को दो प्रकार से ज्ञान की प्राप्ति होती है, स्वत , और सन्तो-एव गुरुजनो के उपदेश से । ज्ञान-प्राप्ति के उपादान और निमित्त ये दो कारण सहायक माने गए है। इनमे ज्ञान-प्राप्ति के ' लिये उपादान कारण का होना अनिवार्य है, किन्तु निमित्त का होना योग एक चिन्तन ]