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कृपानिधि! निष्कारण बंधु तुम यहाँ कैसे आ गए? मंत्रीपुत्र ने सर्व वृत्तान्त निवेदन किया? राजा ने कहा, ओह! यह तो मेरे मित्र हरिनंदी का पुत्र है। अहो! मेरा कैसा प्रमाद कि जिससे मैं अपने मित्रपुत्र को पहचान भी नहीं पाया अथवा मुझ पर जो प्रहार हुआ वह भी मेरे प्रमाद का ही फल है। पश्चात् उसके सद्गुणों से आकर्षित अपनी कन्या का अति आग्रह से विवाह किया।
(गा. 3 5 2 से 361) रंभा के साथ क्रीड़ा करते हुए दीर्घकाल तक वहाँ निवास कर राजपुत्र पूर्व की भांति मंत्रीपुत्र के साथ गुप्तरीति से उस नगर से निकल गया। वहाँ कुंडपुर के समीप आया। वहाँ दिव्य सुवर्णकाल पर स्थित एक केवलज्ञानी मुनि दृष्टिगत हुए। उनको तीन प्रदक्षिणा देकर नमन करके उनके समीप बैठकर अमृत की वृष्टि करती धर्मदेशना सुनी। देशना सम्पन्न होने पर नमस्कार करके अपराजित ने पूछा- 'हे भगवान्! मैं भव्य हूँ, या अभव्य ? केवली भगवन्त ने फरमाया, हे भद्र! तू भव्य है। इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में बाइसवां तीर्थंकर होगा और वह तेरा मित्र तेरा मुख्य गणधर होगा। यह सुनकर दोनों खुश हुए। वहाँ मुनि की सेवा करते हुए स्वस्थता से धर्मपालन करते हुए कुछ दिन वहाँ ही रहे केवली भगवन्त के विहार करने के पश्चात् दोनों स्थान-स्थान पर जिनचैत्यों को वंदन करते हुए घूमने लगे।
(गा. 362 से 368) जनानंद नामक नगर में जितशत्रु नाम का राजा था, उसके धारिणी नाम की शीलवती रानी थी। रत्नवती स्वर्ग से च्यव कर उनकी कुक्षि में अवतरी। समय पूर्ण होने पर एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम प्रीतिमती रखा। अनुक्रम से वह बड़ी हुई और सर्व कलाएं संपादन की। उसी प्रकार स्मृत जीवन रूप यौवन वय को प्राप्त किया। सर्वकलाओं में निपुण उस बाला के समक्ष सुज्ञ पुरुष भी अज्ञ हो जाता। इससे उसकी दृष्टि किसी भी पुरुष पर जरा भी नहीं जाती थी। उसके पिता जितशत्रु राजा विचार करने लगे कि, यदि इस चतुर कन्या का मैं जैसे तैसे वर के साथ शादी कर दूंगा तो निश्चय ही यह प्राणों का त्याग कर देगी। इस प्रकार सोचकर राजा ने एकांत में पूछा- हे पुत्री! तुझे कैसा वर मान्य है ? प्रीतिमती बोली, जो पुरुष मुझे कलाओं में जीत लेगा, उसी के साथ मेरा संबंध होगा। राजा ने यह स्वीकार कर लिया। उसकी इस प्रतिज्ञा की
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)