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उनको पूछा कि यह क्या ? तब वसुदेव ने अतिमुक्त मुनि के वृत्तांत से लेकर सर्व हकीकत कह सुनाई। तब राजा समुद्रविजय ने कृष्ण को अपने उत्संग में बिठाया
और उनके पालन करने से प्रसन्न होकर राम की बारंबार प्रशंसा करने लगे। उस समय देवकी भी छिद्रनासिका वाली पुत्री को साथ लेकर वहाँ आयी और एक उत्संग में से अन्य उत्संग में संचरित कृष्ण का उसने दृढ आलिंगन किया।
_ (गा. 317 से 322) तब सभी यादव हर्षाश्रु वर्षाते हुए बोले हे महाभुज वसुदेव! तुम अकेले ही इस जगत को जीतने में समर्थ हो फिर भी तुम्हारे बालकों को जन्मते ही उस क्रूर कंस ने मार डाला। यह तुमने कैसे सहन किया? वसुदेव बोले- मैंने जन्म से ही सत्यवत का पालन किया है इससे उस व्रत की रक्षा के लिए पहले वचन दे देने से ऐसा दुष्टकर्म सहन किया। अंत में देवकी के आग्रह से इस कृष्ण को नंद के गोकुल में छोड़ आया और उसके बदले नंद की पुत्री को यहां ले आया, तब देवकी का सातवाँ गर्भ कन्या को जानकर उस पापी कंस ने अवज्ञा से नासिका का एक नथुना छेदकर इस बालिका को छोड़ दिया। इस प्रकार वार्तालाप होने के पश्चात भाई और भ्रातृपुत्रों की संमति से समुद्रविजय ने कारागृह में से अग्रसेन राजा को छुड़ाकर बुला लिया और उनके साथ यमुना के किनारे जाकर सबने कंस का प्रेतकार्य किया।
(गा. 323 से 329) कंस की माता ने और पत्रियों ने यमुना नदी में उसको जलांजलि दी परंतु उसकी रानी जीवयशा ने मान धरकर जलांजलि नहीं दी वह तो कुपित होकर बोली कि, इन राम और कृष्ण गोपाल का सर्व संतान सहित दशार्कों का हनन कराकर तब मेरे पति का प्रेतकार्य करूँगी, नहीं तो मैं अग्नि में प्रवेश करूँगी। ऐसी प्रतिज्ञा लेकर वह जीवयशा मथुरा से निकलकर तत्काल अपने पिता जरासंध की आश्रित करी रजगृही नगरी में आई। इधर राम और कृष्ण की अनुज्ञा से समुद्रविजय ने उग्रसेन को मथुरापुरी का राजा बनाया। उग्रसेन ने अपनी पुत्री सत्यभामा कृष्ण को दी और क्रोष्टुकि कथित शुभ दिन में उनका यथाविधि विवाह हुआ।
(गा. 330 से 334)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)