Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 312
________________ उन राजाओं को शंका हुई कि 'क्या हमारे राज्य हरण की इच्छा से वह ऐसा तप कर रहे हैं या कोई मंत्र साधना कर रहे हैं ? इसलिए चलो, हम सब वहाँ जाकर उसे मार डाले। ऐसा सोचकर वे सभी एक साथ सर्वाभिसार से (युद्ध की सामग्री युक्त) राममुनि के पास चले । उनको वहाँ आते देखकर वहाँ रहे हुए सिद्धार्थ देव ने जगत को भी भयंकर सुनाई दे ऐसे अनेक सिंहों की विकुर्वणा की। इससे वे राजा आश्चर्य के साथ भयभीत होकर बलराम मुनि को नमन करके अपने-अपने स्थान पर लौट गये। तब से ही बलभद्र नरसिंह के नाम से प्रख्यात हुए। वन में तपस्या करते हुए बलभद्र मुनि की धर्मदेशना से प्रतिबोध पाकर बहुत से सिंह व्याघ्रादि प्राणी भी शांति पा गए। उसमें से अनेक श्रावक, अनेक भ्रदिक परिणामी और अनेक कायोत्सर्ग करने लगे और अनेक ने अनशन अंगीकार किया । वे मांसाहार से बिल्कुल निवृत्त होकर तिर्यंचरूपधारी राममुनि के शिष्य हो ऐसे उनके परिपार्श्वक हो गये। उनमें पूर्वभव का संबंधी एक मृग जातिस्मरण पाकर अति संवेग वाला होकर उनका सदा का सहनन हो गया । बलराममुनि की निरंतर उपासना करता हुआ वह मृग वन में घूमता और काष्टादिक लेने आने वाले की शोध करता। उनकी तलाश कर लेने पर वह राममुनि के पास आता, वहाँ उनको ध्यानस्थ देखता । तब वह उनके चरण में मस्तक नमा नमा कर भिक्षा देने वाला यहाँ है ऐसी जानकारी देता । राममुनि उसके आग्रह से ध्यान पूर्ण करके उस हिरण को आगे करके उसके साथ भिक्षा लेने जाते एक बार अनेक रथकार उत्तम काष्ठ लेने के लिए उस वन में आए। उन्होंने अनेक सरल वृक्षों का छेदन किया । उनको देखकर उस मृग ने शीघ्र ही राममुनि को बताया । तब उसके आग्रह से वह महामुनि ध्यान में से जागृत हुए और वे रथकार भोजन करने बैठे ही थे कि उस वक्त वे मुनि उस मृग को आगे करके मासक्षमण के पारणे के लिए भिक्षा लेने के लिए वहाँ गये। उन रथकारों में जो अग्रेसर था वह बलदेव मुनि को देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ और विचारने लगे कि 'अहो इस अरण्य में साक्षात् कल्पवृक्ष के जैसे यह कोई मुनि है । अहो कैसा इनका रूप ? कैसा तेज ? कैसी इनकी महान् क्षमता! ये मुनिरूप अतिथि मिलने से तो मैं कृतार्थ हुआ । इस प्रकार चिंतन करके वह रथकार पाँचों अंगों से भूमि को स्पर्श करके (पंचांग प्रणाम करके) उनको भात पानी देने लगा । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व ) (गा. 44 से 61) 301

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