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नेमिनाथजी ने पहले ही कहा था कि विषयसुख अंत में दुःख को ही देने वाला है, वह तुम्हारे संबंध में अभी प्रत्यक्ष हो गया है। हे हरि! कर्म से नियंत्रित हुए ऐसे तुमको मैं स्वर्ग ले जाने में तो समर्थ नहीं हूँ, इससे तुम्हारे मन की प्रीति के लिए मैं तुम्हारे पास रहने को इच्छुक हूँ। कृष्ण ने कहा कि हे भ्राता! तुम्हारे यहाँ रहने से मुझे क्या लाभ होगा? क्योंकि तुम्हारे यहाँ होने पर भी मुझे तो नरक का आयुष्य जितना बांधा है, उतना तो भोगना ही पड़ेगा। इसलिए आपको यहाँ रहने की आवश्यकता नहीं है। मुझे नरक में उत्पन्न होने की पीड़ा से भी अधिक मेरी ऐसी अवस्था देखकर शत्रुओं को हर्ष और शुद्धों को ग्लानि हुई है, यह ज्यादा दुःख दे रहा है। इसलिए हे भाई! तुम भरतक्षेत्र में जाओ और वहाँ चक्र, शाङ्ग, धनुष, शंख और गदा को धारण करने वाले, पीतांबर धारण करने वाले और गरुड़ के चिह्नवाले और हल तथा मूसल को हथियार रूप से रखने वाले ऐसे रूप में स्थान-स्थान पर बताओ, जिससे यद्यपि राम और कृष्ण अविनश्वर विद्यमान हैं, ऐसी लोगों में घोषणा फैले और पूर्व में हुए अपने तिरस्कार का निराकरण हो जाए। इस प्रकार कृष्ण के कथन को स्वीकार करके राम ने भरतक्षेत्र में आकर उनके कहे अनुसार दोनों का रूप सर्व स्थानों पर बताए और उच्च स्वर में उद्घोषणा किया कि 'हे लोगों! तुम हमारी शोभती प्रतिभा बनाकर उत्कृष्ट देवता की बुद्धि से आदरपूर्वक इनकी पूजा करो। हम ही इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले हैं। हम देवलोक से यहाँ आते हैं और स्वेच्छा से पुनः देवलोक में जाते हैं। हमने ही द्वारिका रची थी और स्वर्ग में जलाने की इच्छा से वापिस हमने ही उसका अवसान किया था। हमारे सिवा अन्य कोई भी कर्ता, हर्ता नहीं है। हम भी स्वर्गलोक देने वाले हैं। इस प्रकार उनकी वाणी से सर्व लोग शहर-शहर में, गांव-गांव में, राम-कृष्ण की प्रतिमा बनाकर पूजने लगे। बलराम देवता जो उनकी प्रतिमा की पूजा करने लगे उनको अति उदय देने लगे। इससे सब लोग उनके विशेष प्रकार से भक्त हुए। इस प्रकार राम ने अपने भाई कृष्ण के वचन के अनुसार सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में अपनी कीर्ति और पूजा फैलाई। पश्चात् भाई के दुःख से दुःखी मन से ब्रह्मदेवलोक में गये।
(गा. 71 से 89) इधर जराकुमार पाण्डवों के पास आया और कृष्ण का कौस्तुभ रत्न देकर द्वारका नगरी के दाह आदि की सर्व वार्ता कर सुनाई। वे यह बात सुनकर सद्य त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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