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प्रकार बार-बार कहने पर भी जब कृष्ण बैठे नहीं हुए तब राम स्नेह से मोहित होकर उनके स्कंध पर चढ़ाकर गिरिवन आदि में घूमने लगे। स्नेह से मोहित होने पर भी कृष्ण की मृतकाया को प्रतिदिन पुष्पादिक से अर्चन पूजन करते हुए बलराम ने छः महिने व्यतीत किये।
(गा. 1 से 14) इस प्रकार घूमते घूमते अनुक्रम से वर्षाकाल आया। तब वह सिद्धार्थ जो देव हुआ था, उसने अविधज्ञान से देखा कि मेरा भ्रातृवत्सल भाई बलराम कृष्ण के मृतशरीर को वहन करके घूम रहा है। इसलिए वहाँ जाकर उनको बोध हूँ। क्योंकि उन्होंने पूर्व में मेरे से वचन मांगा था कि जब मुझ पर विपत्ति आवे तब तू देव हो तब आकर मुझे प्रतिबोध देना। इस प्रकार विचार करके उसने पर्व से उतरते एक पाषाणमय रथ की निकुर्वणा की और स्वयं उसका कौदुम्बिक बनकर विषम पर्वत पर से उतरते उस रथ को तोड़ दिया। फिर उसे जोड़ने की मेहनत करने लगा। उसे पाषाणमय रथ को जोड़ते देखकर बलभद्र बोले- अरे मूर्ख! विषमगिरि पर से उतरते हुए जिसके टुकड़े-टुकड़े हो गए ऐसे इस पाषाणमय रथ को जोड़ना क्यों चाहता है ? उस देव ने कहा, हजारों युद्ध में भी हनन नहीं किया हुआ पुरुष युद्ध के बिना ही मर जाय और वह यदि पुनः जी जाय, तो यह मेरा रथ पुनः सज्ज क्यों न होगा? वह देव आगे जाकर पत्थर पर कमल रोपने लगा। तब बलदेव ने पूछा- क्या कभी पाषाणभूमि पर कमलवन उगेगा? फिर देव ने आगे जाकर एक जले हुए वक्ष को सींचने का असफल प्रयास आरम्भ किया। यह देखकर बलदेव ने कहा- दग्ध हुआ वृक्ष पानी से सींचने से पुनः उगेगा? तब देव ने प्रत्युत्तर दिया कि यदि तुम्हारे स्कंध पर रहा हुआ यह शव जी जाएगा तो यह वृक्ष भी पुनः उग जाएगा। आगे जाकर वह देव ग्वाला होकर गायों के शवों के मुख में जिंदा गाय की तरह नवीन दुर्वा डालने लगा। यह देखकर बलदेव ने कहा कि 'अरे मूढ़! यह अस्थिप्रायः हुई गायें क्या तेरी दी हुई दुर्वा कभी भी चरेंगी? देव बोला कि 'यदि यह तुम्हार अनुज बंधु जीएगा तो ये मृत गायें भी दुर्वा को चरेंगी।' यह सुनकर राम ने विचार किया कि क्या मेरे इस अनुज बंधुने वास्तव में मृत्यु प्राप्त की है कि जिससे ये अलग-अलग लोग एक जैसा ही जवाब दे रहे हैं। बलदेव का विचार इस प्रकार सुधरता हुआ देखकर शीघ्र ही उस देवता ने सिद्धार्थ का रूप बनाया
और बलराम के आगे आकर कहा कि 'मैं तुम्हारा सारथी सिद्धार्थ हूँ। दीक्षा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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