Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 308
________________ ऐसा कहकर तृण के संथारे पर सोकर जानु पर चरण रखकर और वस्त्र ओढ़कर सोचने लगे कि भगवान् श्री नेमिनाथ, वरदत्त आदि गणधर, प्रद्युम्न आदि कुमार और रुक्मिणी आदि मेरी स्त्रियों को धन्य है कि जो सतत संसारवास के कारण रूप गृहवास का त्याग करके दीक्षा लेकर चल पड़े और इस संसार में ही विडंबना पाने वाला मैं, मुझे धिक्कार हो । इस प्रकार शुभभावना भाते भाते कृष्ण अंग सर्व तरफ से टूटने लगा और यमराज का सहोदर जैसा प्रबलवायु कोप हुआ। जिससे तृष्णा, शोक और घातकी वासु से पीड़ित कृष्ण का विवेक सर्वथा भ्रष्ट हो गया । वे शीघ्र ही अशुभ विचारणा करने लगे कि ‘मेरा जन्म से कोई भी मनुष्य या देवता भी पराभव कर नहीं सका। उसे इस द्वैपायन ने कैसी बुरी दशा को प्राप्त करा दिया ! इतना होने पर अब भी यदि मैं उसे देखूं तो अभी भी उठकर उसका अंत कर दूं । मेरे सामने वो क्या है ? और उसका रक्षण करने में भी कौन समर्थ है ? इस प्रकार क्षणमात्र रौद्रध्यान ध्याते हुए एक सहस्रवर्ष का आयुष्य पूर्ण करके मृत्यु के पश्चात् निकाचित धर्म उपार्जित तीसरी नरक में गये । कृष्ण वासुदेव ने सोलहवर्ष कौमारावस्था में छप्पन वर्ष मांडलिक रूप में और नौ सौ अट्ठावीस वर्ष अर्धचक्रीरूप में इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण किया। (गा. 154 से 165 ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व ) 297

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