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द्वादश सर्ग
इधर राम मार्ग में अपशकुन होने से व्यथित होते हुए कमल से पत्रपुट में जल लेकर शीघ्र ही कृष्ण के पास आये। उस समय 'यह सो गया है' ऐसा सोचकर एक क्षण तो वे बैठे रहे। इतने में तो कृष्ण वर्णीय मक्खियाँ वहाँ भिनभिनाती देखकर मुख पर से वस्त्र खींच लिया। तब अपने प्रियबंधु को मरण पाये हुए देखकर छेदे हुए वृक्ष की तरह राम मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। तब किसी प्रकार चेतना पाकर उन्होंने जोर से बड़ा सिंहनाद किया कि जिससे शिकारी प्राणी भी त्रास पाने लगे और सारा वन कंपित हो गया। तब वे बोले कि 'जिस पापी ने सुखपूर्वक सोये हुए मेरे इस विश्ववीर बुधु को मार डाला, वह अपनी आत्मा को बतावे और वास्तव में बलवान् हो तो मेरे सामने आवे। परंतु वास्तव में बलवान् तो सोये हुए, प्रमादी, बालक, मुनि और स्त्री पर प्रकार कैसे करेगा? इस प्रकार उच्च स्वर से आक्रोश करते हुए राम उस वन में घूमने लगे। परंतु कोई मनुष्य न मिलने पर पुनः कृष्ण के पास आकर आलिंगन करके रुदन करने लगे कि- 'हे भ्रात! हे पृथ्वी मैं अद्वितीय वीर! हे मेरे उत्संग में हुए! हे कनिष्ठ होने पर भी गुणों में ज्येष्ठ! और हे विश्व श्रेष्ठ! तुम कहाँ हो? अरे वासुदेव! तुम पहले कहते थे कि मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता और इस समय तो सामने उत्तर भी नहीं देते हो, तो वह प्रीति कहाँ गई ? तुमको कुछ रोष हुआ है और इससे ही तुम रूठ गए लगते हो, परंतु मुझे मेरा कुछ अपराध याद आता नहीं है। अथवा क्या मुझे जल लाने में बिलम्ब हुआ, जो तुम्हारे रोष का कारण बना है ? हे भ्राता! वह तुम्हारे रोष का कारण बना हो तो ठीक है। तथापि अभी तुम बैठे सको तो बैठ पाओ। क्योंकि सूर्यास्त हो रहा है और वह समय महात्माओं के सोने का नहीं है। इस प्रकार प्रलाप करते हुए राम ने वहाँ रात्रि व्यतीत की। पुनः प्रातःकाल में कहने लगे भाई बैठ जाओ! बैठ जाओ! इस 298
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)