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है ? तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारे भाइयों और सर्व भोजाइयाँ विवाह करने के लिए तुमसे प्रार्थना कर रही है, इससे हम सबकी इच्छा पूर्ण करो। वंठ (भूत) की जैसे एक अंग वाले रहकर तुम कितने काल निर्गमन करोगे? उसका तुम स्वयं ही विचार करो। हे कुमार! क्या तुम अज्ञ हो? या नीरस हो? या नपुंसक हो? यह हमको कहो। क्योंकि स्त्रीभोग के बिना अरण्य में पुष्प की तरह तुम निष्फल यौवन गँवा रहे हो। जिस प्रकार श्री ऋषभनाथ जी ने पहले तीर्थ का प्रवर्तन किया, उसी प्रकार उन्होंने सांसारिक अवस्था में विवाह मंगल आदि भी आवश्यकता को प्रथम बताया है। योग्य समय पर रूचि के अनुसार खुशी से ब्रह्मचर्य का पालन करना। परंतु गृहस्थपने में अशुचि स्थान में मंत्रोच्चार की तरह ब्रह्मचर्य पालना उचित नहीं है। पश्चात् जांबवती बोली- 'अरे कुमार! तुम्हारे वंश में ही मुनिसुव्रत प्रभु हुए हैं। वे भी विवाह करके पुत्रोत्पत्ति होने के पश्चात् तीर्थंकर हुए हैं। इसके अतिरिक्त भी जिनशासन में अन्य बहुत से महात्मा विवाह के पश्चात् मुक्त हुए और होंगे ऐसा सुना है, वह भी आप जानते हों। फिर भी क्या तुम कोई नवीन मुमुक्षु हुए हो कि जो मुक्तवन का मार्ग छोड़कर जन्म से ही स्त्री पराङ्गमुख रहते हो। पश्चात् सत्यभामा प्रणयकोप करती हुई बोली कि, हे सखि! तुम क्यों इस प्रकार सामवचनों से कहती हो? ये सामवचन से साध्य नहीं है। पिता ने ज्येष्ठ भ्राताओं ने और अन्यों ने भी विवाह के लिए इनसे प्रार्थना की है, तो भी इन्होंने उनका भी मान नहीं रखा। इसलिए हम सब एकत्रित होकर इनको यहीं पर रोका हुआ रखो। यदि ये अपना वचन माने तो इनको छोड़ना, नहीं तो छोड़ना ही नहीं। तब लक्ष्मणा आदि अन्य स्त्रियाँ बोली- बहन! ऐसा नहीं होता, ये अपने देवर है, इससे ये अपने आराधने योग्य हैं। इसलिए यह कुपित हों ऐसा तुमको कुछ कहना योग्य नहीं है, इनको तो किसी भी प्रकार से प्रसन्न करना यही कर्तव्य है। इन्होंने ऐसा कहा इसलिए बाद में रूक्मिणी आदि कृष्ण की सर्व स्त्रियों विवाह के लिए आग्रहपूर्वक प्रार्थना करती हुई नेमिकुमार के चरणों में गिर पड़ी। इस प्रकार स्त्रियों को प्रार्थना करते देख कृष्ण भी समीप में आकर विवाह के लिए नेमिकुमार को प्रार्थना करने लगे। उस समय अन्य यादव भी वहाँ आकर बोले कि, हे कुमार! इन भाई के बचनों को मान्य करो और शिवा देवी, समुद्रविजय और अन्य स्वजनों को भी आनंदित करो। जब ये सब इस प्रकार उन पर आग्रहपूर्वक दबाव डालने लगे, तब नेमिनाथ विचार करने लगे कि अहो! इन सबकी कैसी
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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