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जिससे उसकी प्रतिप्रक्षी दूसरी स्त्री ईर्ष्या धरकर कृष्ण के नेत्र पर कमलरज मिश्रित जल से ताड़न करती थी। अनेक मृगनयना युवतियाँ गोपपने की रासलीला को याद करके कृष्ण के आसपास घूमती रहती थी। उस समय नेमिकुमार निर्विकार होने पर भी भाई के आग्रह से अनेक प्रकार के हास्य करती हुई भ्रातृपत्नियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। देवरजी! अब कहाँ जा रहे हो? ऐसा कहकर कृष्ण की स्त्रियाँ एक साथ हाथ से ताड़ित किए हुए जल को नेमि पर आच्छोटन करने लगी। उस वक्त जल के छींटों को उड़ाती हुई कृष्ण भी स्त्रियों के कर से श्री नेमिप्रभु पल्लवित वृक्ष की तरह शोभा देने लगे। तब वे स्त्रियाँ जलक्रीड़ा के बहाने से स्त्रीस्पर्श ज्ञात कराने के लिए नेमिकुमार के कंठ में लग जाती। छाती से छाती टकराकर भुजाओं से लिपट गई। कोई रमणीय छत्र की तरह नेमिकुमार के ऊपर सहस्रपत्र कमल रखकर मानो अंतःपुर की छत्रधारिणी हों वैसी दिखाई देने लगी। किसी स्त्री ने हाथी के कंठ में उसके बंधन की श्रृंखला डाले वैसे नेमिकुमार के कंठ कंदल में कमलनाल का आरोपण किया। किसी बाला ने कुछ बहाना निकाल कर नेमिनाथ का हृदय कि जो कामदेव के अस्त्रों से अनाहत था, उस पर शतपत्र कमल द्वारा ताड़न किया। नेमिकुमार ने उन सर्व भ्रातृपत्नियों के साथ कृतप्रतिकृत (करे उसके सामने वैसा ही करे) रूप से चिरकाल तक निर्विहार चित्त से क्रीड़ा की। अपने अनुज को क्रीड़ा करते देखकर कृष्ण को इतना हर्ष हुआ कि जिससे वे सरोवर के जल में नंदीवर में हाथी की तरह चिरकाल तक खड़े रहें। जब कृष्ण जलक्रीड़ा समाप्त करके सरोवर में से बाहर निकले तो सत्यभामा रूक्मिणी आदि स्त्रियाँ भी तीर पर आकर खड़ी रही।
(गा. 68 से 95) नेमिकुमार सरोवर में से हंस की तरह बाहर निकले और जहाँ रुक्मिणी आदि खड़ी थी उस तीर पर जाकर खड़े रहे। उसी क्षण रूक्मिणी आदि ने खड़े होकर उनको रत्नासन दिया। अपने उत्तरीयवस्त्र द्वारा उनके अंगों को जल रहित किया। उस समय सत्यभामा मस्करी में और विनयपूर्वक बोली-देवरजी! तुम हमेशा ही हमारा कहना सहन करते हो, इसलिए मैं निर्भय होकर कहती हूँ कि- हे सुंदर! तुम सोलह हजार स्त्रियों के भरतार श्री कृष्ण के भाई होकर भी एक कन्या को क्यों नहीं ग्रहण करते ? इस तीन लोक में तुम्हारा शरीर अप्रतिम रूपलावण्य से पवित्र है और नवीन यौवन है, फिर भी तुम्हारी स्थिति ऐसी क्यों
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)