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है जो तू वमन किये को भी वापिस खाना चाहता है। इससे तो मर जाना बेहतर है। मैं भोजवृष्टि कुल में उत्पन्न हुई हूँ जबकि तू अंधकवृष्टि के कुल में उत्पन्न हुआ पुत्र है। अपन कोई नीच कुल में उत्पन्न नहीं हुए हैं। जो अंगीकार किए हुए संयम को भंग करे। यदि तू स्त्री को देखकर इस प्रकार कामातुर होकर उसकी स्पृहा करेगा, तो तू वायु से हनन किए वृक्ष की तरह अस्थिर हो जाएगा। इस प्रकार राजीमति से प्रतिबोधित हुए रथनेमि मुनि बारम्बार पश्चात्ताप करते हुए सर्व प्रकार की भोग की इच्छा त्याग कर उत्कृष्ट रूप से व्रतों का पालन करने लगे और वहाँ से तुरन्त प्रभु के पास आकर अपने सर्व दुश्चरित्र की घटना कह सुनाई । विशुद्ध बुद्धि वाले रथनेमि मुनि ने एक वर्ष पर्यन्त छद्मस्थ छलस्थ रूप में रहकर अंत में केवलज्ञान को प्राप्त किया ।
(गा. 271 से 287) भव्यजनरूप कमल में सूर्य समाज श्री नेमिनाथ प्रभु अन्यत्र विहार करके पुनः रैवतगिरि पर समवसरे । यह समाचार जानकर कृष्ण ने पालक और शांब आदि पुत्रों को कहा कि जो सुबह जल्दी उठकर सर्व प्रथम प्रभु को वंदन करेगा, उसे मैं इच्छित वस्तु दूंगा। यह सुनकर शांब कुमार ने प्रातः शय्या से उठकर घर में ही रहकर भाव से प्रभु को वंदन किया । पालक ने सघन रात्रि को जल्दी उठकर बड़े अश्व पर बैठकर शीघ्रता से गिरनार पर जाकर हृदय में आक्रोश रखते हुए प्रभु की वंदना की । तब कृष्ण ने आकर उससे दर्पक नामके अश्व की मांग की। कृष्ण ने कहा कि 'श्री नेमिप्रभु जिसे प्रथम वंदना करने वाला कहेंगे, उसे वह अश्व दूंगा। कृष्ण ने प्रभु पास जाकर पूछा कि 'स्वामिन्! आपकी प्रथम किसने वंदना की ? प्रभु बोले 'पालक ने द्रव्योत्तर शांब भाव से प्रथम वंदना की है, कृष्ण ने पूछा 'ऐसा किस प्रकार ?' तब प्रभु बोले 'पालक अभव्य है और जांबवती का पुत्र शांब भव्य है । यह सुनकर कृष्ण ने कुपित होकर भावरहित पालक को निकाल दिया और शांब को मांग के अनुसार उस उत्तम अश्व को दे दिया और बड़ा मांडलिक राजा बना दिया ।'
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )