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मुझे धिक्कार हो कि मैं तटस्थ रहकर इस मेरी नगरी को जलती देख रहा हूँ। आर्य बंधु ! जिस प्रकार इस नगरी की रक्षा करने में मैं समर्थ नहीं हूँ, वैसे इसे देखने में भी उत्साह रखता नहीं हूँ । इसलिए कहो अब अपन कहाँ जायेंगे ? क्योंकि सर्वत्र अपने विरोधी राजा हैं । बलभद्र बोले- ' भाई ! इस समय वास्तव में अपने सगे, संबंधी, बांधव या मित्र पांडव ही हैं । इसलिए उनके यहाँ चले ।' कृष्ण ने कहा, आर्य! पहले मैंने उनको देश निकाला दिया था, तो अपकार की लज्जा से अब वहाँ किस प्रकार जायेंगे ? राम बोले- 'सत्पुरुष अपने हृदय में उपकार को ही धारण करते हैं । वे बुरे स्वप्न की तरह कभी भी अपकार को तो याद करते ही नहीं है। हे भ्राता ! अपनों से अनेक बार सत्कारित पांडव कृतज्ञ होने से अपनी पूजा सत्कार ही करेंगे। उनके संबंध में अन्य विचार लाना ही नहीं । इस प्रकार राम के कहने पर कृष्ण पांडवों की पांडुमथुरा नगरी का लक्ष्य करके नैऋत्य दिशा की ओर चल दिये ।
(गा. 90 से 100 )
इधर द्वारका नगरी धधक रही थी, उस समय राम का पुत्र कुब्जवारक जो कि चरम शरीरी था, वह महल के अग्रभाग पर चढ़कर, हाथ ऊँचे कर के इस प्रकार बोला कि - 'इस समय मैं श्री नेमिनाथजी का व्रतधारी शिष्य हूँ । मुझे प्रभुजी ने चरमशरीर और मोक्षगामी कहा है। यदि अर्हन्त की आज्ञा के अनुसार ही मैं हूँ तो अग्नि से कैसे जलूंगा ? इस प्रकार वह बोला । जब जृंभक देवता उसे वहाँ से उठाकर प्रभु के पास ले गए। उस समय श्री नेमिप्रभुजी पाण्डवों के देश में समवसरे थे। वहाँ जाकर उस महामनस्वी ने दीक्षा ली। जिन राम कृष्ण की स्त्रियों ने पहले दीक्षा नहीं ली थी, उन्होंने भी श्री नेमिप्रभु का स्मरण करते हुए अनशन करके अग्नि ही मृत्यु का वरण किया। इस अग्नि में साठ कुलकोटि और बहत्तर कुलकोटि यादव जलकर भस्म हो गए। छः महिने तक द्वारका नगरी जलती रही, तत्पश्चात् समुद्र ने जल से उसे आप्तावित कर डाला।
(गा. 101 से 105 )
इधर मार्ग में चलते हुए कृष्ण हस्तिकल्प नामक नगर में आए। तब उनको क्षुधा की पीड़ा उत्पन्न हुई, इसलिए यह बात बलभद्र को बतलाई । बलभद्र बोले- 'हे बांधव! मैं तुम्हारे लिए भोजन लेने इस नगर में जाता हूँ । परंतु तुम यहाँ प्रमादरहित होकर रहना । यदि मुझे नगर में कुछ कष्ट हुआ, तो मैं सिंहनाद
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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