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घूमे फिरें। तब मद्यपान करने में अभक्ष्य खाने में और स्वेच्छा से क्रीड़ा करने में निमग्न रहने लगे। उस समय छिद्रान्वेषी द्वैपायन को अवकाश मिला। इसलिए उसकी कटुदृष्टि से शीघ्र ही कल्पांत काल जैसे और यमराज के द्वार जैसे विविध उत्पात द्वारका में उत्पन्न हुए। आकाश में उल्कापात के निर्घात होने लगे। पृथ्वी कांपने लगी। ग्रहों में से धूमकेतु को विडंबना उत्पन्न करने वाला धुंआ निकलने लगा। अंगारों की वृष्टि होने लगी। सूर्यमंडल में छिद्र दिखाई देने लगे। अचानक सूर्य-चंद्र ग्रहण होने लगे। महलों में स्थित लेप्यमय पुतलियाँ अट्टहास करने लगी। चित्रों में चित्रित देवतागण भृकुटि चढ़ाकर हंसने लगे। नगरों में भी हिसंक जानवर विचरण करने लगे। उस समय वह द्वैपायन देव भी अनेक शाकिनी, भूत और वैताल आदि से परिवृत्त होकर घूमने लगा। नगरजन स्वप्न में रक्त वस्त्र (लाल) रक्त विलेपनवाले, कीचड़ में धंसे हुए और दक्षिणाभिमुख खींचते हुए अपनी आत्मा को देखने लगे। राम और कृष्ण के हल, चक्र आदि आयुधरत्नों का नाश हो गया। तब द्वैपायन ने संवर्तक वायु की विकुर्वणा की। उस वायु ने काष्ठ, तिनके आदि सब ओर से ला लाकर नगरी में डाले। जो लोग चारों दिशाओं में भागने लगे उनको भी ला लाकर डाल दिया। उसी पवन ने आठों दिशाओं में से वृक्षों का उन्मूलन कर दिया और उनको लाकर समग्र द्वारका नगरी को लकड़ियों से भर दिया। साठ कुल कोटि बाहर रहने वाले और बहत्तर कुल कोटि द्वारका में रहने वाले इस प्रकार सर्व यादवों को इकट्ठा करके इस द्वैपायन असुर ने अग्नि प्रकट की। यह अग्नि प्रलयकाल की अग्नि की भांति अपने सघन धुएँ से समग्र विश्व में अंधकार करती हुई धग धग् शब्द करती हुई प्रज्वलित हुई। आबाल वृद्ध सभी लोग मानो बेड़ियों से कैद किए हुए हो, जकड़े हुए हो, वैसे एक डग भी वहाँ से चलने में समर्थ नहीं हुए। सभी पिंडाकार रूप में एकत्रित हो गये। उस समय राम और कृष्ण ने वसुदेव देवकी
और रोहिणी को अग्नि में से बाहर निकालने के लिए रथ में बिठाया। परंतु वादी जैसे सर्प को स्तंभित कर देता है, वैसे देवता से स्तंभित किए हुए अश्व
और वृषभ वहाँ से जरा भी चल नहीं सके। तब राम-कृष्ण घोड़ों को छोड़कर स्वयं ही उस रथ को खींचने लगे। इतने में तो उस रथ की धुरी तड़-तड़ शब्द करती हुई, लकड़े के टुकड़े की तरह टूट गई। तथापि वे हे राम! हे कृष्ण हमारा रक्षण करो, रक्षण करो! ऐसे दीनता से पुकारने अपने माता-पिता को बचाने के लिए अत्यन्त सामर्थ्य से उस रथ को मुश्किल से नगर के दरवाजे के पास
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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