Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 300
________________ हुए और मदिरा पान से अंध बने उन कुमारों ने उस गिरि पर आश्रय लेकर रहे हुए धयानस्थ द्वैपायन ऋषि को देखा। उनको देखकर शांब कुमार बोले कि'यह तापस हमारी नगरी को और हमारे कुल का नाश करने वाला है। इसलिए इसे ही मार डालो कि जिससे मर जाने के बाद यह दूसरे का किस प्रकार नाश करेगा? ऐसे शांबकुमार के वचन से शीघ्र ही कुपित हुए सभी यादव कुमार, पत्थरों से पादुकाओं से थप्पड़ों से और मुक्कों से उसे बार-बार मारने लगे। इस प्रकार उसे पृथ्वी पर गिराकर मृतप्रायः करके वे सभी द्वारका में आकर अपने-अपने घर में घुस गये। (गा. 19 से 30) कष्ण ने अपने व्यक्तियों के पास से ये सर्व समाचार सुनकर खेदयुक्त होकर विचारने लगे कि – 'अहो! इन कुमारों ने उन्मत्त होकर कुल का अंत करने जैसा आचरण किया है ? तब कृष्ण राम को लेकर द्वैपायन ऋषि के पास आए। वहाँ बड़े दृष्टिविष सर्प की तरह क्रोध से लाल-लाल आंखों वाले उस द्वैपायन ऋषि को देखा। तब उन्मत्त हाथी को जैसे महावत शांत करता है उसे अति भयंकर त्रिदंडी को कृष्ण विनम्र वचनों के द्वारा शांत करने लगे। क्रोध एक बड़ा शत्रु है कि जो केवल प्राणियों को इस जन्म में ही दुःख नहीं देता बल्कि लाखों जन्म तक दुःख देता रहता है। हे महर्षि! मद्यपान से अंध हुए मेरे अज्ञानी पुत्रों ने आपका बहुत बड़ा अपराध किया है, उनको क्षमा करो। क्योंकि आपके जैसे महाशयों को क्रोध करना उपयुक्त नहीं है। कृष्ण ने इस प्रकार बहुत कुछ विनम्रता से तो भी वह त्रिदंडी शांत नहीं हुआ। वह बोला कि- हे कृष्ण! तुम्हारी सान्त्वना का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि जिस समय तुम्हारे पुत्रों ने मुझे मारा तब ही मैंने सर्व लोगों सहित द्वारका नगरी को जलाने का नियाणा कर लिया है। उनमें से तुम्हारे दो के बिना अन्य किसी का छुटकारा होगा नहीं। इस प्रकार उसके वचन सुनकर राम ने कृष्ण का निषेध करते हुए कहा कि 'हे बांधव! इस संन्यासी को वृथा किसलिए मनाते हो? जिनके मुख, धरण, नासिका और हाथ टेड़े हों, जिनके होंठ, दांत और नासिका स्थूल हो, जिसकी इंद्रिया विलक्षण हों और जो हीन अंगवाला हो, वह कभी भी शांति नहीं पा सकता। इस विषय में इसे कहना भी क्या है? क्योंकि भवितव्यता का नाश किसी भी प्रकार से नहीं है और सर्वज्ञ के वचन अन्यथा नहीं होते। कृष्ण शोकवदन घर आये। द्वारका में उस द्वैपायन के नियाणे की बात फैल गई।' (गा. 31 से 41) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 289

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