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एकादश सर्ग
एक बार देशना के अंत में विनयवान् कृष्ण ने भगवंत को नमस्कार करके अंजलिबद्ध होकर पूछा - भगवन्! इस द्वारका नगरी का, यादवों का और मेरा किस प्रकार नाश होगा ? यह किसी अन्य हेतु से अन्य के द्वारा या काल के प्रभाव से स्वयमेव होगा ? प्रभु ने फरमाया- शौर्यपुर के बाहर एक आश्रम में पाराशर नामक एक पवित्र तापस रहता है। किसी वक्त उसने यमुना द्वीप में जाकर किसी नीचकुल की कन्या को भोगा, उससे उसे द्वैपायन नामक पुत्र हुआ। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला और इंदियों का दमन करने वाला वह द्दैपायन ऋषि यादवों के स्नेह से द्वारका के समीप रहेगा । उसे किसी समय शांब आदि यदुकुमार मदिरा से अंघ होकर मारेंगे। इससे क्रोधांघ हुआ वह द्वैपायन यादवों द्वारका को जला देगा, और तुम्हारे भाई जराकुमार के द्वारा तुम्हारा नाश होगा। प्रभु के ऐसे वचन सुनकर सभी कहने लगे 'अरे यह जराकुमार अपने कुल में अंगार रूप है।' इस प्रकार सर्व यादव कुमार दंभ पुवांक हृदय से उसे देखने लगे । जराकुमार भी यह सुनकर विचार करने लगा कि 'क्या मैं वसुदेव का पुत्र होकर भी भाई का घात करने वाला होऊंगा ? प्रभु का वचन सर्वथा अन्यथा करने का मैं प्रयत्न करूँ ।' ऐसा विचार करके प्रभु को नमन करके वह वहाँ से उठा और दो तूणीर (तरकश ) तथा धनुष को धारण करके कृष्ण की रक्षा करने के विचार से ( स्वयं से उसका विनाश न हो जाय इसलिए) वनवास को अंगीकार किया । द्वैपायन भी जनश्रुति से प्रभु के वचन सुनकर द्वारका और यादवों की रक्षा के लिए वनवासी हो गये । कृष्ण भी प्रभु को नमन करने द्वारकापुरी में आए और मदिरा के कारण से अनर्थ होगा, ऐसा जानकर मदिरा पान करने का सर्वथा निषेध कर दिया । कृष्ण की आज्ञा से समीपस्थ पर्वत पर आये हुए कंदबवन के मध्य में कादम्बरी नामक गुफा के पास में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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