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दूसरे दिन कृष्ण ने द्वारका में घोषणा करवा दी कि ‘सब लोग धर्म में विशेष तत्पर रहें।' तब सभी जन ने वैसा ही किया। इतने में भगवान नेमिनाथ जी भी रैवताचल पर आकर समवसरे। ये समाचार सुनकर कृष्ण वहाँ गये। जगत् की मोहरूपी महानिद्रा को दूर करने के लिए रवि की कांति जैसी धर्मदेशना सुनने लगे। उस धर्मदेशना को सुनकर प्रद्युम्न, शांब, निषध, उल्मुक
और सारणादि अनेक कुमारों ने दीक्षा ले ली। इसी प्रकार रूक्मिणी, और जांबवती आदि अनेक यादवों की स्त्रियों ने भी संसार से उद्वेग पाकर प्रभु के पास दीक्षा ले ली। कृष्ण के पूछने पर प्रभु ने कहा कि 'द्वैपायन आज से बारहवें वर्ष में द्वारका का दहन करेगा।' यह सुनकर कृष्ण चिंता करने लगे कि 'उन समुद्रविजय जी आदि को धन्य है कि जिन्होंने पहले से ही दीक्षा ले ली है, और मैं तो राज्य में लुब्ध होकर दीक्षा के बिना ही पड़ा हूँ, मुझे धिक्कार हो।' कृष्ण का ऐसा आशय जानकर प्रभु बोले कि – 'हे कृष्ण! कभी उनके चरित्र धर्म के उच्च सिद्धांतों के पालन में अर्गला स्वरूप बाधक होते हैं। राज्यधर्म के पालन में उनसे पापकर्म होते ही हैं- यह अनिवार्यता है अस्तु इसके फलस्वरूप नरक धारण भी अनिवार्य है। यह नियम अपरिवर्तनीय है।' यह सुनते ही कृष्ण अत्यन्त दुःखी हो गये, तब सर्वज्ञ प्रभु ने पुनः कहा कि 'हे वासुदेव! तुम खेद मत करो। क्योंकि तुम नारकीय जीवन निकालकर इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकर होवोगे। ये बलभद्र यहाँ से मृत्यु प्राप्त करके ब्रह्मदेवलोक में जायेंगे। वहाँ से च्यव कर पुनः मनुष्य होंगे, फिर देवता होंगे, वहाँ से च्यवकर इस भरतक्षेत्र में उत्सर्पिणी काल में राजा होंगे और तुम्हारे ही तीर्थ में मोक्ष जायेंगे। इस प्रकार कहकर प्रभु ने अन्यत्र विहार किया। वासुदेव भी उनको नमन करके द्वारका में आये। तब कृष्ण ने उद्घोषणा कराई तो सर्व लोग विशेष धर्मनिष्ठ हुए।
(गा. 42 से 56) द्वैपायन वहाँ से मृत्यु प्राप्त करके अग्निकुमार निकाय में देवतारूप में उत्पन्न हुआ। पूर्व का वैर स्मरण उसने करके उसी समय वह द्वारका में आया। परंतु वहाँ सब लोगों को चतुर्थ, छ?, अट्ठम आदि तप में संलग्न और देवपूजा में निमग्न देखा। धर्म के प्रभाव से वह कुछ भी उपसर्ग करने में समर्थ न हो सका। इससे उनके छिद्र देखता हुआ ग्यारह वर्ष तक वह वहाँ ही रहा। जब बारहवां वर्ष लगा तब लोगों ने विचारा कि अपने तप के प्रभाव से द्वैपायन भ्रष्ट होकर चला गया और अपन जीवित रह गये। इसलिए अब अपन स्वेच्छा से
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)