Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 295
________________ कृष्ण ने निष्क्रमणोत्सव किया। ढंढणकुमार मुनि प्रभु के साथ विहार करने लगे और सर्व साधुओं के अनुमत हो गये। इस प्रकार रहते हुए उनको पूर्वबद्ध अन्तरायकर्म का उदय हुआ। इससे वे जहाँ भी जाते वहाँ उनको आहारादि कुछ भी मिलता नहीं। इतना ही नहीं परन्तु जिन मुनियों के साथ भी जाते तो उनको कुछ भी मिलता नहीं। तब सभी साधुओं ने मिलकर श्री नेमिनाथ प्रभु को पूछा कि 'हे स्वामिन्! तीन लोक के स्वामी आप के शिष्य और कृष्ण वासुदेव के पुत्र होने पर भी इन ढंढणमुनि को बड़े धनाढ्य, धार्मिक और उदार गृहस्थों से युक्त इस सम्पूर्ण द्वारकानगरी में किसी स्थान पर भी भिक्षा नहीं मिलती इसका क्या कारण है ? प्रभु बोले- 'पूर्व समय में मगध देश में धान्यपूरक नाम के गाँव में राजा का परासर नामका ब्राह्मण सेवक रहता था। वह उस गाँव के लोगों के पास से राजा के खेतों में बुवाई कराता था। परंतु भोजन का समय हो जाने पर भी और भोजन आ जाने पर भी वह उन लोगों को भोजन करने की इजाजत नहीं देता। परन्तु भूखे प्यासे और थके हुए बैलों द्वारा वह उन ग्रामीण लोगों के पास हल जुतवा कर एक-एक चास (हल जोतने से बनी हुई गहरी लकीर) निकलवाता था। ऐसा कार्य करके उसने अंतराय कर्म बांधा है, उसके उदय से इसे भिक्षा नहीं मिलती। इस प्रकार प्रभु के वचन सुनकर ढंढणमुनि को अत्यन्त संवेग हुआ। इससे उन्होंने प्रभु के पास अभिग्रह लिया कि आज से मैं दूसरे की लब्धि के द्वारा मिले आहार से भोजन नहीं करूंगा। इस प्रकार अलाम परीषह को सहन करते हुए ढंढण मुनि को परलब्धि से मिले आहार को ग्रहण नहीं करते हुए, आहार के बिना बहुत सा समय व्यतीत हुआ। एक बार सभा में बैठे हुए नेमिप्रभु से कृष्ण वासुदेव ने पूछा ‘स्वामिन्! इस सर्व मुनियों में दुष्कर कार्य करने वाले कौन है ?' प्रभु बोले- 'सर्व ही दुष्कर कार्य करने वाले हैं, परंतु ढंढण तो सबसे अधिक है, क्योंकि उन्होंने अलाभ परीषह सहन करते हुए बहुत सा काल व्यतीत किया है। कृष्ण वासुदेव प्रभु को नमन करके द्वारका में जा रहे थे, इतने में मार्ग में ढंढणमुनि को गोचरी जाते देखा। इसलिए शीघ्र ही हाथी से उतरकर अतिभक्ति से उनको नमस्कार किया। उस समय किसी एक श्रेष्ठी ने कृष्ण को नमस्कार करते हुए देखकर विचार किया कि इन मुनि को धन्य है कि जिनको महाराज कृष्ण भी इस प्रकार नमन करते हैं।' ढंढणमुनि भी घूमते-घूमते उन्हीं श्रेष्ठी के घर पहुंच गए। तब उस श्रेष्ठी ने उनको बहुमानपूर्वक मोदक बहराए। ढंढणमुनि ने आकर सर्वज्ञ प्रभु से नमस्कार करके कहा कि 284 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)

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