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नगरजन विविध क्रीड़ा करने लगे। कोई बकुल वृक्ष के नीचे बैठकर बोरसली पुष्प की खुशबू रूपी मदिरा की पान-पिपासा लेकर पान करने लगे। कोई वीणा बजाने लगे, कोई ऊँचे स्वर से बसंत राग गाने लगे। कोई मदिरा से उन्मत्त होकर अपनी स्त्रियों के साथ किन्नर की तरह नाचने लगे। चमेली, अशोक और बोरसली आदि के वृक्षों पर से कोई पुष्पहार विद्याधर की तरह अपनी स्त्रियों के साथ पुष्प चूँटने लगे। कोई चतुर माली की भाँति पुष्पों के आभूषण गूंथ गूंथ रमणियों के अंगों में पहनाने लगे। कोई नवपल्लव की शय्या में और लतागृह में कांदर्पिक देव जैसे युवतियों के साथ क्रीड़ा करने लगे। कोई गाढ़ रति से श्रांत होकर पानी के तीर पर लौटते भोगियों अर्थात् भोगी (सर्प) की तरह मलयाचल के वचन का पान करने लगे। कोई कंकिल्ला के वृक्ष की शय्या के साथ झुले बांधकर रति और कामदेव के सदृश अपनी अंगना के साथ झूलने लगे, और अनेक कामदेव के शासन में वर्तते पुरुष कंकिल्ल के वृक्षों को अपनी प्रिया के चरणाघात कराने के लिए, बोरसली के वृक्षों पर मदिरा का कुल्ला करके डालने के लिए, तिलक के वृक्षों को सराग दृष्टि से देखने के लिए कुरूवण के वृक्षों से गाढ आलिंगन दिलाने के लिए और इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार के दोहद से अन्य वृक्षों को विशेष प्रकार से पुष्पित करने लगे।
(गा. 45 से 56) उस समय कृष्ण वासुदेव भी नेमिकुमार को साथ में रखकर सत्यभामा आदि स्त्रियों से घिरे होने पर भी वन के हाथी की तरह इधर-उधर घूमने लगे। वहाँ नेमिकुमार को देखकर कृष्ण को विचार आया कि यदि नेमिनाथ मन भोग में लगा ले तो ही मेरी लक्ष्मी कृतार्थ हो और तभी मेरा सौभ्रातृपन भी माना जाय। इससे आलंबन, उद्दीपन और विभाव अनुभाव बारम्बार करके इस नेमिकुमार को मेरे अनुकूल करना कि जिससे कभी मेरा मनोरथ पूर्ण हो। इस प्रकार विचार करके कृष्ण ने अपने हाथों से पुष्पमाला गूंथ कर मुक्ताहार की भांति नेमिकुमार के कंठ में आरोपित की। तब कृष्ण का भाव जानकर सत्यभामा आदि चतुर रमणियाँ भी विचित्र पुष्पामरण से श्री नेमि का शृंगार करने लगी। कोई उनके पृष्ट पर अपने पुष्ट और उन्नत स्तनों का स्पर्श करके उनका केशपाश सुंदर पुष्पमाला द्वारा गूंथने लगी। कोई हरिवल्लभा ऊँची भुजलता करके करमूल को बताती हुई नेमिकुमार के मस्तक पर मुकुट गूंथने लगी, कोई हाथ से पकड़कर उनके कर्ण में कामदेव के जयध्वज जैसा कर्णाभूषण रचने लगी और
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)