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कि इतने में अस्त्ररक्षकों ने आकर बताया कि - आपके भाई अरिष्टनेमि ने आकर पाँचजन्य शंख को सहज में ही फूँक डाला है। यह सुनकर कृष्ण विस्मित हो गए। परंतु मन में उस बात पर श्रद्धा न होने से कुछ विचार में पड़ गये । इतने में तो नेमकुमार भी वहाँ आ गये । कृष्ण ने संभ्रम से खड़े होकर नेमिनाथ को अमूल्य आसन दिया और फिर गौरव से कहा- हे भ्राता ! क्या अभी पाँचजन्य शंख आपने फूँका, कि जिसकी ध्वनि से समग्र पृथ्वी अद्यापि क्षोभ पा रही है ? नेमिनाथ ने कहा- हाँ, तब कृष्ण उनसे भुजबल की परीक्षा करने के उद्देश्य से आदरपूर्वक बोले- हे भाई! मेरे बिना पाँचजन्य शंख फूंकने में कोई समर्थ नहीं है । तुमने शंख फूँका, यह देख मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ । परंतु हे मानद ! अब मुझे विशेष प्रसन्न करने के लिए तुम्हारा भुजाबल बताओ और मेरे साथ बाहुयुद्ध से युद्ध करो । नेमिकुमार ने इसे स्वीकार किया। तब दोनों वीरबंधु अनेक कुमार से घिरकर अस्त्रागार में गये ।
(गा. 1 से 21 )
प्रकृति से दयालु ऐसे नेमिकुमार ने विचारा कि 'यदि मैं छाती से, भुजा से, या चरण से कृष्ण को दबा दूँगा तो उनका क्या हाल होगा ? इससे जिस प्रकार उनको कोई अड़चन न हो और वह मेरे भुजाबल को जान ले, ऐसा करना ही योग्य है। इस प्रकार विचार करके नेमिकुमार ने कृष्ण को कहा कि 'हे बन्धु! बारम्बार पृथ्वी पर लौटना आदि से युद्ध करना, यह तो साधारण मनुष्य का काम है। इसलिए परस्पर भुजा को झुकाने के द्वारा ही अपना युद्ध होना चाहिए। कृष्ण ने उनके वचन को मान करके भुजा को लंबा किया, परंतु वृक्ष की शाखा जैसी उस विशाल भुजा को कमलनाल की तरह लीलामात्र में
मकुमार ने नमा दिया । पश्चात् नेमिनाथ ने अपनी वाम भुजा को लंबा किया। तब कृष्ण उसको झुकाने के लिए बंदर लिपटे वैसे सर्व बल के द्वारा उससे लिपट गये। परंतु नेमकुमार के उस भुजस्तंभ को वन का हाथी पृथ्वी के दांत जैसे महागिरि को नमा नहीं सकते वैसे ही किंचित् भी नमा नहीं सके। तब नेमिनाथ का भुजस्तेन छोड़कर अपना खिसियाना छुपा कर कृष्ण उनका आलिंगन करते हुए इस प्रकार बोले- हे प्रिय बंधु ! जिस प्रकार बलराम मेरे बल से जगत को तृण समान मानते हैं, उसी प्रकार मैं तुम्हारे बल से समग्र विश्व को तृण समान गिनता हूँ।' इस प्रकार कहकर कृष्ण ने नेमिनाथ को विदा किया। राम को कहा, हे भाई! तुमने बंधु नेमिनाथ का लोकोत्तर बल देखा ?
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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