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द्वारका नगरी में वीरो नामक एक बुनकर विष्णु का परम भक्त था । वह कृष्ण के दर्शन और उनकी पूजा करके ही भोजन करता, नहीं तो खाता नहीं था । कृष्ण के पूर्वोक्त आज्ञा से द्वारपाल ने वर्षाकाल में उसे कृष्ण मंदिर में प्रवेश करने नहीं दिया, इससे वह द्वार पर ही बैठा रहकर कृष्ण का स्मरण करके पूजा किया करता । परन्तु कृष्ण के दर्शन न होने से वह भोजन नहीं करता। जब वर्षाकाल व्यतीत हो गया और कृष्ण राजमहल से बाहर निकले, उस समय सर्व राजागण और यह वीरो बुनकर भी द्वार के पास आकर खड़े हो गये। तब वीरो बुनकर को अत्यन्त कृश हुआ देखकर वासुदेव ने पूछा 'तू इतना दुर्बल कैसे हो गया?' तब द्वारपालों ने जो उसका कृश होने का यथार्थ कारण था, वह कह सुनाया । तब कृष्ण ने कृपा करके उसे हमेशा अपने महल में निर्बाध रूप से आने देने की आज्ञा दी ।
(गा. 206 से 210)
पश्चात् कृष्ण परिवार सहित श्री नेमिनाथ प्रभु को वंदन करने गए। वहाँ भगवंत द्वारा यतिधर्म के विषय में सुनकर कृष्ण बोले- 'हे नाथ! मैं यतिधर्म पालने में तो समर्थ नहीं हूँ, परन्तु अन्यों को दीक्षा दिलाने में और उनकी अनुमोदना करने का नियम लेता हूँ। जो कोई भी दीक्षा लेगा, उसमें मैं अवरोध नहीं करूँगा, बल्कि पुत्रवत् उसका निष्क्रमणोत्सव करूँगा । ऐसा अभिग्रह लेकर विष्णु (कृष्ण) स्वस्थान पर गए। इतने में उनकी विवाह के योग्य हुई कन्याएं उनको नमस्कार करने आयीं । उनको कृष्ण ने कहा कि 'हे पुत्रियों! तुम स्वामिनी बनोगी या दासी बनोगी ?' वे बोली कि 'हम तो स्वामिनी बनेंगी ।' तब कृष्ण ने कहा कि हे निष्पाप पुत्रियों! यदि तुमको स्वामिनी बनना हो तो श्री नेमिनाथ प्रभु के पास जाकर दीक्षा ले लो। इस प्रकार कहकर विवाह के योग्य उन कन्याओं को कृष्ण दीक्षा दिलाई। इसी प्रकार जो जो कन्या विवाह योग्य होती उसे दीक्षा दिलाने लगे। एक बार एक रानी ने अपनी केतुमंजरी नाम की कन्या को सिखाया कि वत्से! यदि तेरे पिता तुझे पूछे तो तू निःशंक होकर कहना कि - मुझे दासी होना है, रानी नहीं होना । अनुक्रम से वह जब विवाह योग्य हुई तब उसकी माता ने उसके पिता (कृष्ण) के पास भेजी । जब वह गई तब कृष्ण ने पूछा कि 'दासी होना है या रानी ? तब जैसे माता ने सिखाया था, वैसे ही उसने कह दिया। यह सुनकर कृष्ण विचारने लगे 'यदि दूसरी पुत्रियाँ भी ऐसे कहेगी, तब तो वे मेरी पुत्रियाँ होने पर भी भवजंजाल में भ्रमण करके सर्वथा अपमानित
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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