________________
उसका एक खंड तोड़कर उसे दिया और चंदन के खंड से उसे सांध दिया। इसी प्रकार यह द्रव्यलुब्ध व्यक्ति अन्यों को भी उसके टुकड़े काट-काटकर देने लगा। इससे वह भेरी मूल से (पूरी ही) चंदन की कंथा जैसी हो गई। पुनः एक बार उपद्रव होने पर कृष्ण ने उसे बजवायी तो उसका एक मशक जैसा नाद हुआ जो कि सभा में भी पूरा सुनाई नहीं दिया। इससे यह क्या हुआ? कृष्ण ने अपने विश्वासु व्यक्तियों को पूछा, तब उन्होंने तलाश करके कहा कि उसके रक्षक ने पूरी भेरी को जोड़-जोड़ कर कथा जैसी बना दी है, यह बात सुनकर कृष्ण ने उसके रक्षक को मृत्युदंड दिया और फिर अट्ठम तप करके उसके जैसी दूरी भेरी उस देव से प्राप्त की। क्योंकि 'महान् पुरुषों के लिए क्या मुश्किल है?'
(गा. 173 से 179) ___ पश्चात् रोग की शांति के लिए कृष्ण ने वह भेरी बजवाई। धन्वंतरी और वैतरणी नामके दो वैद्यों को भी लोगों की व्याधि की चिकित्सा करने की आज्ञा दी। इनमें वैतरणी वैद्य भव्य जीव था। वह जिसे जो उपयुक्त होती और धन्वंतरी पाप भरी चिकित्सा करता इससे उसे जब साधु कहते कि 'यह औषध हमको खाने योग्य नहीं है। तब वह सामने जवाब दे देता कि- मैंने साधुओं के अनुरूप आयुर्वेद पढ़ा नहीं है, इसलिए मेरा कथन महामानो। और न मेरे कथनानुसार करो। इस प्रकार ये दोनों वैद्य द्वारका में वैद्य पना करते थे। एक बार कृष्ण ने नेमिप्रभु से पूछा कि 'इन दोनों वैद्यों की क्या गति होगी?' तब प्रभु बोले कि 'धन्वंतरी वैद्य सातवीं नगर के अप्रतिष्ठान नामके सातवें नरकावास में जाएगा, और जो वैतरणी वैद्य है, वह विंध्याचल में एक युवा यूथपति वानर होगा। उस वनमें कोई सार्थ के साथ साधुगण आवेंगे। उनमें से एक मुनि के चरण में कांटा लग जाएगा, इससे वे चलने में असमर्थ हो जाएंगे। उनके साथ अन्य मुनि भी वहाँ अटक कर खड़े रह जायेंगे। तब वह मुनि अन्य मुनियों से कहेंगे कि तुम मुझे यहाँ छोड़ जाओ, नहीं तो। सार्थ भ्रष्ट होने से सर्वजन मृत्यु को प्राप्त होंगे। फिर उनके चरण में से कांटा निकालने में असमर्थ अत्यंत व्यथित मुनीगण हैं उन मुनि को एक छायादार जमीन पर बैठाकर खेदयुक्त चित्त से सार्थ के साथ चले जायेंगे। इतने में वह यूथपति बंदर अनेक बंदरों के साथ वहाँ आयेगा। तब मुनि को देखकर आगे चलने वाले बंदर किलकिलाख करने लगेंगे। उस नाद से रोष करता हुआ वह यूथपति बंदर आगे आएगा। उन मुनि को देखकर वह विचार करेगा कि ऐसे मुनि को पहले कहीं देखा है। इस प्रकार
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
279