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ऊहापोह करते उसे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न होगा। इससे वह अपने पूर्व भव के वैद्यक कर्म याद करेगा। तब प्राप्त हुए उस वैद्यकज्ञान से पूर्व पर से वह बंदर विशल्या और रोहिणी नामक दो औषधियाँ लाएगा । उसमें से विशल्पा नामकी औषधि को दांतों से पीस कर मुनि के चरण पर रखेगा। इससे उनका पैर से कांटा निकल जाएगा। फिर रोहिणी नामकी औषधि से शीघ्र ही घाव भर जाएगा । तब वह यूथपति मैं पहले द्वारका में वैतरणी नामक का वैद्य था । इस प्रकार के अक्षर लिखकर उन मुनि को बताएगा । तब मुनि उसका चारित्र याद करके उसे धर्मोपदेश देंगे, इससे वह कपि तीन दिन का अनशन करके सहस्रार नामक आठवें देवलोक में जाएगा। देवलोक में देव बना हुआ वह युथपति अवधि ज्ञान द्वारा अपना पूर्व वानर रूप देखेगा - जिसे वह मुनिकृपा से तीन दिवस के अनशन के बाद कायोत्सर्ग कर आया था । वहाँ उत्पन्न होते ही अवधिज्ञान वह अपना कायोत्सर्गी वानर शरीर देखेगा और उसके पास बैठकर नवकार मंत्र सुनाते मुनि को देखेगा। तब मुनि पर अत्यन्त भक्ति वाला वह देव वहाँ आकर उन मुनि को नमस्कार करके कहेगा कि 'हे स्वामिन्! आपकी कृपा से मुझे ऐसे देव - संबंधी महाऋद्धि प्राप्त हुई है । पश्चात् वह मुनि को सार्थ के साथ गए अन्य मुनियों के साथ मिला देगा। तब वह मुनि उस कपि की कथा को अन्य साधुओं से कहेंगे। भगवंत द्वारा कथित इस प्रकार वर्णन सुनकर धर्म पर श्रद्धा रखते हुए हरि प्रभु को नमस्कार करके स्वस्थान पर गये। प्रभु ने भी वहाँ से अन्यत्र विहार किया।
(गा. 180 से 199)
किसी समय वर्षा ऋतु के आरंभ में मेघ की तरह जगत को तृप्त करने वाले नेमिनाथ प्रभु द्वारका के समीप आकर समवसरे । कृष्ण ने भगवन्त के पास सेवा करते हुए प्रभु को पूछा, हे नाथ! आप और अन्य साधुगण वर्षाऋतु में विहार क्यों नहीं करते ? प्रभु बोले- वर्षा ऋतु में समग्र पृथ्वी विविध जीव जंतुओं से व्याप्त हो जाती है, इससे जीवों को अभय देने वाले साधु उस समय विहार नहीं करते। कृष्ण ने कहा कि 'तब तो मैं भी परिवार सहित बारम्बार गमनागमन करता हूँ, इससे बहुत से जीवों का क्षय होता है, इसलिए मैं भी वर्षाकाल में राजमंदिर से बाहर नहीं निकलूंगा । ऐसा अभिग्रह लेकर कृष्ण वहाँ से जाकर अपने राजमंदिर में प्रवेश किया । वहाँ द्वारपालों को आज्ञा दी कि 'वर्षाऋतु के चार मास पर्यन्त किसी को भी राजमहल में प्रवेश नहीं करने देना ।
(गा. 200 से 205 )
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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