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बोला- केवल मैं नहीं, परंतु बालक भी यह तो जानता ही है। राजीमति ने कहा- 'अरे यदि तू जानता है तो नेमिनाथ ने मेरा वमन कर दिया है, तो भी मेरा उपभोग करना क्यों चाहता है ? फिर उनका ही भ्राता होकर तू ऐसी इच्छा क्यों करता है ? इसलिए अब इसके बाद नारकी का आयुष्य बंधन कराने वाले ऐसे वचन नहीं बोलना।' इस प्रकार राजीमति के वचन सुनकर रथनेमि मौन हो गया। पश्चात् लज्जित होता हुआ और मनोरथ क्षीण हो जाने से विमनस्क रूप से अपने घर चला गया।
(गा. 267 से 273) राजीमति नेमिनाथ में ही अनुराग धारण कर संवेग प्राप्त होने पर वर्ष जैसे दिन व्यतीत करने लगी। नेमिनाथ जी व्रत लेने के पश्चात् 54 दिन तक विहार करते हुए पुनः रैवतगिरि के सहस्राम्रवन नामक उद्यान में आए। वहाँ वैतसना वृक्ष के नीचे अट्ठम (तेले) का तप करके ध्यान धरते हुए नेमिनाथजी के घाती कर्म टूट गए, अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इससे आश्विन मास की अमावस्या के दिन प्रातःकाल में चंद्र के चित्रा नक्षत्र में आने पर श्री अरिष्टनेमिजी को केवल्यज्ञान उत्पन्न हुआ। तत्काल ही आसन चलायमान होने से सर्व इंद्र वहाँ आये, उन्होंने तीन प्रकार से शोभित समवसरण रचा। उसमें पूर्वद्वार से प्रवेश करके एक सौ बीस धनुष ऊँचे चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा देकर 'तीर्थाय नमः' ऐसा कहकर ये बावीसवें तीर्थंकर पूर्वाभिमुख होकर पूर्व सिंहासन पर आरूढ़ हुए। नव परिचमादिक तीन दिशाओं में व्यंतर देवताओं ने तीनों दिशाओं में रत्न सिंहासन पर श्री नेमिनाथजी के तीन प्रतिबिंब की विकुर्वणा की। तब चारों प्रकारों के देव-देवियाँ चन्द्र पर चकोर जैसे प्रभु के मुख पर दृष्टि स्थापित करके योग्य स्थान पर बैठीं। इस प्रकार भगवन्त समवसरे हैं, ये समाचार गिरिपालकों ने जाकर शीघ्र ही अपने स्वामी कृष्ण वासुदेव को कहे। तब वे साढ़े बारह कोटि द्रव्य देकर शीघ्र ही श्री नेमिनाथजी को वंदन की इच्छा से गजारूढ़ होकर चल दिये। दसों दशार्द, अनेक माताएँ, अनेक भाईयों कोटि संख्या में कुमार, सर्व अंतःपुर और सोलह हजार मुकुटबंध राजाओं से परिवृत श्री कृष्ण विपुलसमृद्धि के साथ समवसरण में आए। दूर से ही गजेन्द्र से उतर कर, राज्य चिह्न छोड़कर, उत्तरद्वार से समवसरण में उन्होंने प्रवेश किया। श्री नेमिनाथ प्रभु को प्रदक्षिणा देकर, नमन करके कृष्ण इंद्र के पीछे बैठे। अन्य सभी भी अपने अपने योग्य स्थान पर बैठे। पश्चात् इंद्र और उपेन्द्र (कृष्ण) ने
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)