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रुक्मिणी आदि तथा अन्य स्त्रियों ने भी श्रावक व्रत ग्रहण किया, अतः वह श्राविकाएं हुई। इस प्रकार उसी समवसरण में पृथ्वी को पवित्र करने वाले चतुर्विध धर्म की तरह चतुर्विध संघ स्थापित हुआ। प्रथम पौरूषी पूर्ण होने पर प्रभु ने देशना पूर्ण की, तब दूसरी पौरुषी में वरदत्त गणधर ने देशना दी। पश्चात् इंद्र आदि देवतागण एवं कृष्ण प्रमुख राजा प्रभु को नमन करके अपने अपने स्थान पर गये।
(गा. 372 से 383) श्री नेमिनाथ प्रभु के तीर्थ में तीन मुखवाला, श्यामवर्णी, मनुष्य का वाहनवाला, तीन दक्षिण दिशा में बिजोरा, परशु और चक्र धारण करने वाला तथा तीन वाम भुजा में नकुल, त्रिशूल और शक्ति को धारण करने वाला गोमेध नाम का यक्ष शासनदेवता हुए और सुवर्ण समान कांति वाली, सिंह के वाहन पर आरूढ़, दो दक्षिण भुजा में आज की लुम्ब (टहनी) और पाश को धारण करने वाली और दो वाम भुजा में पुत्र और अंकुश को धारण करने वाली कुष्मांडी अथवा अंबिका नाम की प्रभु की शासन देवी हुई। ये दोनों शासन-देवता प्रभु के सान्निध्य में निरन्तर रहते थे। प्रभु वर्षा और शरदऋतु का उल्लंघन करके भद्र गजेन्द्र की तरह गति करते हुए लोगों के कल्याण के लिए वहाँ से अन्यत्र विहार करने में प्रवृत्त हुए।
(गा. 384 से 388)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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