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वहाँ नाव दिखाई नहीं दी। तब एक भुजा पर अश्वसहित रथ को रखकर दूसरे हाथ से जल में तैरने लगे। तैरते हुए जब गंगा के मध्य में आए, तब श्रांत होकर विचारने लगे कि अहा! पांडव बहुत शक्तिशाली है कि नाव बिना ही गंगा को तैर कर पार कर गये। कृष्ण को इस प्रकार चिंतित जानकर गंगादेवी ने तत्काल स्थल दे दिया। तब विश्राम लेकर हरि सुखपूर्वक उसे पार कर गये। किनारे पर आकर पांडवों ने कहा कि, आपने वाहनबिना किस प्रकार गंगा को पार किया? पांडवों ने कहा कि हम तो नाव से गंगा उतरे? तब कृष्ण ने कहा फिर नाव को मेरे लिए वापिस क्यों नहीं भेजा? पांडव बोले- आपके बल की परीक्षा के लिए हमने नाव भेजी नहीं। यह सुनकर कृष्ण कुपित होते हुए बोले 'तुमने समुद्र तैरने में या अमरकंका को जीतने में मेरा बल जाना नहीं था, जो अभी मेरा बल देखना बाकी रह गया था? इस प्रकार कहकर पांडवों के पाँचों रथों को लोहदंड के द्वारा चूर्ण कर डाले और उस स्थान पर रथमर्दन नगरी बसाया। तब कृष्ण ने पांडवों को देश निकाला दिया और स्वयं अपनी छावनी में आकर सबके साथ द्वारका में आये।
(गा. 77 से 88) पांडवों ने अपने नगर में आकर यह वृत्तांत कुंतीमाता को कहा, तब कुंती द्वारका में आयी। और कृष्ण को कहा कि “कृष्ण! तुमने देशनिकाला दिया तो अब मेरे पुत्र कहाँ रहेंगे? क्यों इस भरतार्द्ध में तो ऐसी कोई पृथ्वी नहीं है जो कि तुम्हारी न हो। तब कृष्ण बोले 'दक्षिण समुद्र के तट पर पांडुमथुरा नामकी नवीन नगरी बसा कर उसमें तुम्हारे पुत्र निवास करें।' कुंती ने आकर यह कृष्ण की आज्ञा पुत्रों को कही। तब वे समुद्र के बेला से पवित्र ऐसे पांडुदेश में गए। कृष्ण ने हस्तिनापुर के राज्य पर अपनी बहन सुभद्र के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित का राज्यभिषेक किया। भगवान् नेमिनाथ पृथ्वीमल को पवित्र करते हुए अनुक्रम से सर्व नगरों में श्रेष्ठ भद्दिलपुर में पधारे। वहाँ सुलसा और नाग के पुत्र जो देवकी के उदर से उत्पन्न हुए थे और जिनको नैगमेषी देवता ने हरण करके सुलसा को दिया था, वे वहाँ रहते थे। प्रत्येक ने बत्तीस कन्याओं से विवाह किया था। उन्होंने श्री नेमिनाथ प्रभु के बोध से उसके पास व्रत ग्रहण किया। वे छहों चरम शरीरी थे। वे द्वादशांगी ग्रहण करके महान् बड़े-बड़े तप करते हुए प्रभु के साथ विहार करने लगे।
(गा. 89 से 97)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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