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का वहाँ से रात्रि में हरण कर लिया । उसे पद्म को अर्पण करके देव अपने स्थान पर चला गया। जब द्रौपदी जागृत हुई अपने आपको अन्यत्र पाकर सोचने लगी कि क्या यह स्वप्न है या इन्द्रजाल ? उस समय पद्मनाभ ने उनको कहा कि- 'हे मृगाक्ष ! तू भयभीत मत हो, मैं ही तेरा यहाँ हरण करवा लाया हूँ । इसलिए यहाँ मेरे साथ रहकर भोगों को भोग । यह घातकी खंड नाम का द्वीप है, उसमें यह अमरकंका नाम की नगरी है, मैं इसका पद्मनाभ नाम का राजा हूँ, जो तेरा पति होने का इच्छुक हूँ।' यह सुनकर प्रत्युत्पन्न मति बोली कि 'रे भद्र! एक मास के अन्दर जो कोई मेरा संबंधी यहाँ आकर मुझे न ले जाय तो बाद में मैं तुम्हारा वचन मान्य कर लूँगी।' पद्मनाभ ने सोचा कि 'यहाँ जंबूद्वीप के मनुष्यों की गति एकदम अशक्य है, इससे इसके वचन को मान्य करने में कोई कठिनाई नहीं है।' ऐसा सोचकर कपटी पद्मनाभ ने उसका कहना मान लिया । ' तब मैं पति के बिना एक मास तक भोजन करूँगी नहीं' ऐसा पतिव्रत रूप महासती द्रौपदी ने अभिग्रह धारण किया ।
(गा. 1 से 19)
इधर पांडवों ने प्रातःकाल द्रौपदी को देखा नहीं, तब वे जल, स्थल और वनादि में उसकी बहुत खोज करने लगे । जब किसी भी स्थान पर द्रौपदी के कुछ भी समाचार नहीं मिले तब उनकी माता ने जाकर कृष्ण को बताया । कारण कि वे ही उनके शरणरूप और संकट वियोग में बंधुरूप थे । कृष्ण कार्य में दृढ़ होकर विचाराधीन हो गए। इतने में अपने द्वारा कृत अनर्थ को देखने के लिए नारद मुनि वहाँ आए, तब कृष्ण ने नारद को पूछा कि 'तुमने किसी स्थान पर द्रौपदी को देखा है ? नारद ने कहा कि 'मैं घातकी खंड में अमरकंका नगरी
गया था, वहाँ के राजा पद्मनाभ के घर मैंने द्रौपदी को देखा है।' ऐसा कहकर वे वहाँ से अन्यत्र चले गये । कृष्ण ने पांडवों से कहा कि पद्मनाभ ने द्रौपदी का हरण किया है, इससे मैं वहाँ जाकर द्रौपदी को ले आऊँगा । इसलिए तुम खेद मत करो। तब कृष्ण पांडवों को लेकर विपुल सैन्य के साथ मगध नामके पूर्व सागर के तट पर गये। वहाँ पांडवों ने कहा, 'स्वामिन्!' यह समुद्र संसार की तरह अत्यन्त भयंकर, पारावार और उद्धृत है। यहाँ किसी स्थान पर बड़े बड़े पर्वत एक पत्थर की तरह उसमें निमग्न हो गए हैं, किसी स्थान पर बड़े पर्वत जैसे जलजंतु इसमें रहे हुए हैं। किसी स्थान पर समुद्र को शोषण करने की प्रतिज्ञा करके बड़वानल रहा हुआ है। किसी स्थान पर कैवर्त की तरह बेलंधर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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